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(ल०-८ प्रज्ञागुणा:-) सत्यां चास्यां तत्त्वगोचराः शुश्रूषा-श्रवण-ग्रहण-धारणा-विज्ञानऊहा-ऽपोह -तत्त्वाभिनिवेशाः प्रज्ञागुणाः ।
(पं०-) 'शुश्रूषे'त्यादि,-'शुश्रूषा,' श्रोतुमिच्छा, 'श्रवणं' = श्रोत्रोपयोगः, 'ग्रहणं' = शास्त्रार्थमात्रोपादानं, 'धारणम्' = अविस्मरणं, मोहसन्देहविपर्ययव्युदासेन ज्ञानं = विज्ञानं, विज्ञातमर्थमवलम्ब्यान्येषु व्याप्त्या तथाविधवितर्कणम् = 'ऊहः', उक्तियुक्तिभ्यां विरुद्धादर्थात्प्रत्यपायसम्भावनया व्यावर्त्तनम् = 'अपोहः' । अथवा सामान्य ज्ञानम् 'ऊहो', विशेषज्ञानम् 'अपोहः' । विज्ञानोहापोहानुगमविशुद्धम् इदमित्थमेवेतिनिश्चयः = 'तत्त्वाभिनिवेशः' पश्चात्पदाष्टकस्य द्वन्दः समासः । 'प्रज्ञागुणाः बुद्धरुपकारिण इत्यर्थः।
दृढ न किया तो बाद में विस्मरण होगा । अतः अविस्मरण जरुरी है। इसके पश्चात् (५) 'विज्ञान' गुण होना चाहिए; अर्थात् अवधारित किये गए शास्त्र के अर्थो के बारे में अब मोह यानी मूढता न हो, संदेह न हो, एवं विपरीत ज्ञान न हो, ऐसा श्रद्धापूर्वक निश्चित ज्ञान होना आवश्यक है। विज्ञान के बाद (६) ऊह' गुण प्राप्त करना है। उसमें विज्ञात किये पदार्थ का अवलम्बन करके कहां कहां अन्यों में इसका समन्वय होता है, यह विविध रीति से सोचा जाता है। इसके अनन्तर (७) अपोह' भी किया जाता है; अर्थात् कहां कहां विरुद्ध वस्तु में से, अनर्थ होने की संभावना के कारण, विज्ञात किये पदार्थ की व्यावृत्ति होती है, यानी समन्वय नहीं हो सकता, यह शास्त्रवचन और युक्ति के द्वारा सोचा जाता है। दृष्टान्त के लिए, शास्त्र से विज्ञात किया कि 'जहां जहां स्वतन्त्र चेष्टा होती है वहां वहां आत्मा होती है।' अब इसके पर 'ऊह' करने के लिए दूसरों में समन्वय सोचना चाहिए; तो जीते शरीरों में ऐसी चेष्टा देखने से आत्मा होने की प्रतीति होती है। एवं 'अपोह' करने के लिए यह सोचते हैं कि जिन जड पदार्थ एवं शबो में ऐसी चेष्टा नहीं दिखाई देती, वहां आत्मा नहीं है। यह अन्वय-व्यतिरेक उहअपोह का एक अर्थ हुआ। दूसरा अर्थ है सामान्यज्ञान-विशेषज्ञान । विज्ञान किये अर्थ का सामान्य रूप से ज्ञान यह 'ऊह' है, और विशेष रूप से ज्ञान यह 'अपोह' है । अन्त में (८) तत्त्वाभिनिवेश' गुण प्राप्त करना है। इसका अर्थ है, विज्ञान और उह-अपोह का ठीक उपयोग कर के 'यह तत्त्व ऐसा ही है' इस प्रकार का किया जाता निर्णय, यानी दृढ आग्रह, स्थिर मन्तव्य ।
इन आठ गुणों को प्रज्ञागुण याने बुद्धि के आठ गुण कहते हैं; क्यों कि वे बुद्धि के उपकारी है। सच्चे और झुठे बुद्धिगुणों का भेद क्यों ? :
अब ये सच्चे प्रज्ञागुण कौनसी विशेषातावाले होते हैं यह बतलाते हैं। उन तत्त्वसम्बन्धी बुद्धिगुणों में - शुश्रूषादि प्रत्येक गुण की अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रवणादि गुण अति बहु ज्ञानावरणादि क्लिष्ट कर्मो के अणु स्वरूप पाप परमाणुओं का नाश होने से होते हैं; ऐसा बहुश्रुत यानी बहु शास्त्र जाननेवाले कहते हैं । तात्पर्य आठ गुणों में उपर उपर के प्रत्येक गुण के लिए अधिकाधिक क्लिष्ट कर्मो का क्षय आवश्यक हैं । कहिए क्यों ऐसा ? कारण यह है कि ऐसे कर्मक्षय द्वारा पैदा न हुए, और विलक्षण कारणों से उत्पन्न हुए असत् शुश्रूषा-श्रवणादि के द्वारा तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता है, संसारकी निर्गुणता-निरुपकारिता आदि का ज्ञान अर्थात्-'संसार निर्गुण है, आत्मा का उपकारी नहीं किन्तु अपकारी है; धन-परिवारादि संयोग विनश्वर है; इन्द्रियों के विषयभूतशब्दरूपादि विपाकदारुण होने से विषसमान है; मृत्यु अवश्यंभावी है; एकमात्र धर्म ही सारभूत है;' -इत्यादि पारमार्थिक तत्त्व का ज्ञान नहीं हो
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