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( ल०-' के वली' पदं किमर्थम् ? - ) अपरस्त्वाह, - ' के वलिन इति न वाच्यं, यथोदितस्वरूपाणामर्हतां केवलित्वाव्यभिचारात् ; सति च व्यभिचारसंभवे विशेषणोपादानसाफल्यात् तथा च संभवे व्यभिचारस्य विशेषणमर्थवद् भवति, यथा नीलोत्पलमिति । व्यभिचाराभावे तु तदुपादीयमानमपि यथा ‘कृष्णो भ्रमरः, शुक्लो बलाहक' इत्यादि ऋ ते प्रयासात् कमर्थं पुष्णातीति । तस्मात् केवलिन इत्यतिरिच्यते । "
(ल०-विशेषणदानं त्रितयार्थम् ) न, अभिप्रायापरिज्ञानात् । इह केवलिन एव यथोक्तस्वरू पा अर्हन्तो नान्ये इति नियमार्थत्वेन स्वरूपज्ञापनार्थमेवेदं विशेषणमित्यनवद्यम् । न चैकान्ततो व्यभिचारसंभवे एव विशेषणोपादानसाफल्यम्, उभयपदव्यभिचारे, एकपदव्यभिचारे, स्वरूपज्ञापने च शिष्टोक्तिषु तत्प्रयोगदर्शनात् । तत्रोभयपदव्यभिचारे, यथा-नीलोत्पलमिति । तथैकपदव्यभिचारे, यथा-अब्द्रव्यं, पृथिवी द्रव्यमिति । तथा स्वरूपज्ञापने, यथा- परमाणुरप्रदेश इत्यादि । यतश्चैवमतः केवलिन इति न दुष्टम् ।
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‘दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्म्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ।।' जिस प्रकार बीज अत्यन्त भुंजे जाने पर उसमें से अंकुर नहीं उग सकता, उस प्रकार कर्म्म बीज दग्ध हो जाने पर संसार- अंकुर उत्पन्न नहीं होता ।
सारांश, अन्य कल्पित परमात्मा 'जिन' नहीं है, अत: यहां 'जिणे' पद उनका व्यावर्तक होने से सार्थक है। 'जिन' अनेक प्रकार :
प्र० - अगर ऐसा हो तब 'जिणे' इतना ही पद रखा जाए, 'लोगस्स उज्जोअगरे'... इत्यादि की क्या आवश्यकता है ?
उ०- इस प्रवचन में विशिष्ट श्रुत (आगम) घर आदि भी सामान्य रूप से 'जिन' कहे जाते हैं। यह इस प्रकार - दस पूर्व अथवा अधिक जानने वाले श्रुतजिन कहलाते हैं; अवधिज्ञान धरने वाले अवधि जिन, मनःपर्यायज्ञान वाले मन:पर्याय जिन, एवं ११ वे १२ वे गुणस्थानक में स्थित छद्मस्थ महात्मा वीतराग जिन कहे जाते हैं। वे यहाँ नहीं लेने हैं, अत: उनके व्यवच्छेदार्थ 'लोगस्स उज्जो अगरे'.... इत्यादि पद दिये गए हैं।
प्र०-'अरिहंते' पद क्यों ? 'लोगस्स उज्जोअगरे', 'धम्मतित्थयरे', और 'जिणे', ये तीन पद पर्याप्त हैं, तो 'अरिहंते' पद नहीं देना चाहिए।
उ०- ऐसा मत कहिए, क्यों कि 'अरिहंते' पद विशेष्यवाची पद है और पूर्व तीन पद विशेषण वाची हैं, इसलिए उसके देने में कोई दोष नहीं । विशेषण पदों को विशेष्यपद की आवश्यकता होती है।
प्र०- ऐसा हैं ? हां, तब तो सिर्फ 'अरिहंते' पद ही रखा जाए ! 'लोगस्स उज्जोअगरे' इत्यादि पदों की क्या जरुरत ? वे निरर्थक हैं।
उ०- निरर्थक नहीं है; क्यों कि अरिहंत के तो नाम- अरिहंत, स्थापना - अरिहंत, इत्यादि अनेक प्रकार होते हैं; लेकिन यहाँ भाव - अरिहंत का ही ग्रहण करना है; तब औरो के व्यवच्छेद (अग्रहण) के लिए दिए गए 'लोगस्स उज्जोअगरे' इत्यादि पद निरर्थक नहीं है ।
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