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(ल०- सप्तमगाथाव्याख्या - ) चंदेसु० गाहा,
( चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ ७ ॥ ) व्याख्या इह प्राकृतशैल्या आर्षत्वाच्च पञ्यम्यर्थे सप्तमी द्रष्टव्येति 'चन्द्रेभ्यो निर्मलतरा:', पाठान्तरं वा 'चंदेर्हि निम्मलयर'त्ति । तत्र सकलकर्म्ममलापगमाच्चन्द्रेभ्यो निर्मलतरा इति । तथा, 'आदित्येभ्योऽधिकं प्रकाशकरा:', केवलोद्योतेन विश्वप्रकाशनादिति; उक्तं च - 'चंदाइच्चगहाणं पहा पगासेइ परिमियं खेत्तं । केवलियणाणलंभो लोयालोयं पयासेइ ॥ १ ॥' तथा 'सागरवरगम्भीराः', तत्र सागरवरः स्वयम्भूरमणोऽभिधीयते, तस्मादपि गम्भीराः, परीषहोपसर्गेभ्यो ऽ ( प्र०... सग्र्गाद्य) क्षोभ्यत्वात्, इति भावना । सितं ध्यातमेषामिति सिद्धाः, कर्म्मविगमात्कृतकृत्या इत्यर्थः । सिद्धि = परमपदप्राप्तिं मम दिशन्तु, अस्माकं प्रयच्छन्तु - इति गाथार्थः ॥ ७ ॥
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(३) जिस प्रकार चिन्तामणि रत्नादि से योग्य आत्माओं को इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है, इस प्रकार जिनेश्वर देवों में रागादि न होने पर भी, उनसे भव्यात्माओं को इष्ट की प्राप्ति होती हैं ।
(४) अगर प्रश्न हो कि वीतराग प्रभु से प्राप्ति कैसे ? उत्तर यह है कि वस्तु का स्वभाव एक चीज ही ऐसी है कि इसके विषय में 'ऐसा स्वभाव क्यों' इस प्रकार प्रश्न करना फिजूल है। वीतराग तीर्थंङ्कर भगवान अपूर्व चिन्तामणि हैं, इसलिए ऐसे महान प्रभाव वाले उनकी स्तुति करने से बोधिलाभ की प्राप्ति होती है ।
(५) तीर्थङ्कर भगवान की भक्ति से पूर्वसंचित कर्मों का क्षय हो जाता है; क्यों कि वे उत्कृष्ट गुणों वाले हैं और उत्कृष्ट गुणवालों की भक्ति उन गुणों का बहुमान है तथा उत्कृष्ट गुणों का बहुमान यह कर्मवन को जला देने के लिए दावानल रूप है।
इससे कहना यह है कि यद्यपि वे तीर्थंङ्कर भगवान वीतराग होने से आरोग्यादि देते नहीं हैं, फिर भी इस प्रकार की, वीतराग के आगे, आशंसा व्यक्त करने वाली स्तुति के भाषा प्रयोग से प्रवचन की आराधना होती है। प्रवचन का आदेश है कि वीतराग अरिहंत प्रभु की स्तुति - भक्ति करना; उसके आदेश के पालन से उसकी आराधना है । यह आराधना करने वाला जीव सन्मार्गवर्ती एवं महात्मा है और उसे आशंसित फल पैदा होता है; लेकिन वह फल वीतराग तीर्थंकर भगवान की विशिष्टता के आधार पर ही होता है; अर्थात् अगर ऐसे वीतराग तीर्थंकर वास्तविक हो एवं स्तुति के विषय बनाये जाए तभी स्तुति का महा फल उत्पन्न होता है । स्तुति के प्राधान्य की अपेक्षा विषय का प्राधान्य रहा, 'स्तुति किसके प्रति करते हो ?' यह महत्व की वस्तु है । इसलिए फलोत्पत्ति के प्रति स्तुति का महत्त्व इतना नहीं किन्तु स्तुति के विषयभूत वीतराग प्रभु का महत्व है, फल के प्रति प्रधान कारण भगवान है । यह गाथाओं का तात्पर्य है ।
७वी गाथा की व्याख्या :
चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ ७ ॥ इसकी व्याख्या इस प्रकार है; - 'चंदेसु निम्मलयरा' यहां प्राकृत भाषा की शैली से और आ
( ऋषिप्रणीत) स्तव होने से 'चंदेसु' एवं 'आइच्चेसु' में सप्तमी विभक्ति को पंचमी विभक्ति के अर्थ में समझना । अथवा ‘चंदेहिं निम्मलयरा' ऐसा पाठान्तर जानना । इसका अर्थ है चन्द्र की अपेक्षा भी अधिक निर्मल; क्योंकि समस्त कर्ममल दूर हो गया है। तथा 'आइच्चेसु अहियं पयासयरा' सूर्य की अपेक्षा भी अधिक
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