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(ल०-) योगिबुद्धिगम्योऽयं व्यवहारः । सार्थकानर्थकचिन्तायां तु भाज्यमेतत्, चतुर्थभाषारू पत्वात् ।
(पं०-) स्यादेतद्, - अभ्युदयफलत्वेन धर्मस्य लोके रूढत्वात्, तथैव च तत्प्रार्थनायां काऽविशेषज्ञता? इत्याशङ्क्याह - 'योगिबुद्धिगम्योऽयं व्यवहारः' = मुमुक्षुबुद्धिपरिच्छेद्योऽयं ऋद्ध्यभिष्वङ्गतो धर्मप्रार्थनाया अविशेषज्ञतारूपो व्यवहारः, धर्मस्य प्रारम्भावसानसुन्दरपरिणामरूपत्वाद्, ऋद्धेश्च पदे पदे विपदां पदभूतत्वान्महान् विशेषः; अन्यस्य च भवाभिष्वङ्गत इत्थं बोद्धमशक्यत्वात् । 'सार्थकानर्थकचिन्तायां तु भाज्यमेतत् चतुर्थभाषारू पत्वादिति । अयमभिप्रायः, - चतुर्थी हि एषा भाषा आशंसारूपा न कञ्चन सिद्धमर्थं विधातुं निषेधुं वा समर्था-इत्यर्थिका, प्रकृष्टशुभाध्यवसायः पुनः फलमस्या भवति-इति सार्थिका; इत्येवं भाज्यतेति।
॥ इति श्री मुनिचंद्रसूरिविरचित - ललितविस्तरावृत्तिपंजिकायां चतुर्विंशतिस्तवः समाप्तः ।।
यहां तात्पर्य यह है, -जीव में पुरुषार्थोपयोगी धर्म तो वैराग्य, अनासक्ति, उपशम, तत्त्वदृष्टि इत्यादि हैं, और आसक्ति, रागद्वेष, क्रोध-लोभ, जडदृष्टि वगैरह धर्म तो पुरुषार्थघातक है, त्यागधर्म आदि के सच्चे पुरुषार्थ के विरोधी है। एवं अजीव में भी पुरुषार्थोपयोगी धर्म,-विनश्वरता, परकीयता, इत्यादि है, वे वैराग्यादि के पुरुषार्थ के लिए उपयुक्त है; और अच्छे बुरे वर्ण-गंध-रस-स्पर्श आदि धर्म रागद्वेष के प्रेरक होने से धर्मपुरुषार्थ के घातक होते हैं। पौद्गलिक आशंसा करने वाला पुरुष इस विभाग को न समझता हुआ इष्टप्राप्ति हेतु धर्म को माध्यम बना कर रागद्वेष की वृद्धि करने द्वारा स्वहित का घातक और नरकादि अहित का उत्पादक होता है। अगर वह समझता हो तो पुरुषार्थ घातक पौद्गलिक रुप-रंग के पीछे क्यों दौडे? महादुर्लभ और अनंतसुखदायी धर्म प्राप्त होने पर भी उसीका भीषण अनर्थ में गिराने वाला उपयोग क्यों करे?
प्राकृत लोगों का भी विवेक :प्र०- यह अविशेषज्ञता दुषित है ऐसा कैसे श्रद्धास्पद हो सकता है ?
उ०- अहो ! यह तो पृथग् लोगों में भी ज्ञात है। जो लोग वैसे शास्त्रसिद्ध लोकोत्तर आचार विचारादि से बहिःस्थित है बाहर रहे हुए हैं, अर्थात् उनसे परिचित नहीं है, ऐसे अनेकविध बाल, मध्यम आदि प्रकृत जनों को भी अविशेषज्ञता कनिष्ट है वैसा ज्ञात है; दूसरे शास्त्राधीन बुद्धि वाले पण्डित पुरुषों को प्रतीत होने का तो कहना ही क्या? कहते हैं, - 'नार्घन्ति रत्नानि....' इत्यादि । अर्थात् जिस देश में रत्नपरीक्षक लोग नहीं मिलते हैं, वहां समुद्र में पैदा होने वाले रत्नों का मूल्यांकन नहीं होता है। ग्वालों के गांवडे में वे लोग चन्द्रकान्त जैसै रत्न को भी तीन कौडी की कीमत में बेचते हैं।' 'हे मित्र कोयल ! इस बधिर लोगों की निवास भूमि में तेरा कोमल कलरव करना बेकार है; क्यों कि ये लोग कला की अनभिज्ञता के कारण दैववश कौए के समान तेरा श्याम वर्ण देख कर तुझे भी कौआ ही समझते हैं।' इत्यादि अविशेषज्ञों के व्यवहार को वे पृथग् जन भी निन्द्य समझते हैं।
प्र०- लोक में धर्म यह स्वर्गादि सुख देने वाले के रूप में रूढ़ है और उस हिसाब में तदर्थ धर्म की प्रार्थना की जाती है, इसमें अविशेषज्ञता क्या आई ?
उ०- सांसारिक समृद्धि की आसक्ति से की जाती धर्म-प्रार्थना में अविशेषज्ञता है यह व्यवहार मुमुक्षुजनों की बुद्धि से समझा जा सकता है। धर्म तो आरम्भ एवं अन्त दोनों काल में सुन्दर चित्तपरिणाम रूप
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