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(ल०-) चतुर्थभाषारू पप्रार्थनासमर्थकशास्त्रगाथा:-) तदुक्तं,भासा असच्चमोसा णवरंभत्तीए भासिया एसा ।नहुखीणपेज्जदोसा देति समाहिंच बोहिंच ॥१॥ तत्पत्थणाए तहवियण मुसावाओ एत्थ विण्णेओ।तप्पणिहाणाओच्चिय तग्गुणओ हंदि फलभावा ॥२॥ चिन्तामणिरयणादिहिंजहा उभव्वा समीहियं वत्थु । पावंति तह जिणेहिं तेसिं रागादभावे वि॥३॥ वत्थुसहावो एसो अउव्वचिन्तामणी महाभागो।थोऊणं तित्थयरेपाविज्जइ बोहिलाभो त्ति ॥४॥ भत्तीए जिणवराणं खिज्जन्ती पुव्वसंचिया कम्मा।गुणपगरिसबहुमाणो कम्मवणदवाणलो जेण ॥५॥
एतदुक्तं भवति, -यद्यपि ते भगवन्तो वीतरागत्वादारोग्यादि न प्रयच्छन्ति तथाप्येवंविधवाक्(प्र०...वाक्य) प्रयोगतः प्रवचनाराधनतया सन्मार्गवर्त्तिनो महासत्त्वस्य तत्सत्तानिबन्धनमेव तदुपजायत इति गाथार्थः ॥६॥
है, और ऋद्धि पद पद पर आपत्ति के समान रूप है, इसलिए धर्म और ऋद्धि में यह महान अन्तर है। यह संसार से उद्विग्न मुमुक्षु जीव ही जान सकते हैं, दूसरे भवाभिनन्दी यानी संसाररसिक जीवों से समझा जाना अशक्य है। निष्कर्ष यह आया कि आरोग्य-बोधिलाभादि का आशंसा अप्रशस्त निदान रूप नहीं है।
प्र०- आरोग्यबोधिलाभादि की आसंसा से जो 'आरुग्गबोहिलाभं... दिंतु' कहा गया यह वचन सार्थक है या निर्थक?
उ०-इसमें भजना है, स्याद्वाद है, यह इस प्रकार, कि वह सार्थक भी ही, निरर्थक भी है।
(१) निरर्थक इसलिए कि यह वचन चौथी व्यवहार-भाषा स्वरूप है । पहली सत्य भाषा हित फलदायी होती है, दूसरी असत्य भाषा अहित फलकारी है, और तीसरी सत्य-असत्य मिश्र भाषा इससे कम अहित फल वाली होती है। तात्पर्य, तीनों ही वचन सार्थक होते हैं, लेकिन चौथी व्यवहार भाषा न तो सत्य, न वा असत्य है। 'मुझे आरोग्यबोधिलाभादि दीजिए' इस वचन में क्या सत्य अथवा क्या असत्य है ? कुछ नहीं, वह तो व्यवहारमात्र है, आशंसा का व्यक्तीकरण है; न किसी सिद्ध पदार्थ का विधान करनेवाला सत्य वचन है, न निषेध करनेवाले वचन है । इस दृष्टि से जिनाज्ञासिद्ध के विधान किंवा निषेध से जन्य शुभाशुभ कर्म रूप फल यहां कुछ नहीं होता। अत: यह निरर्थक है।
(२) सार्थक इसलिए कि ऐसी आरोग्यबोधिलाभादि की आशंसा को व्यक्त करनेवाले वचन से सत्प्रणिधान द्वारा अतिशय शुभ अध्यवसाय (चित्तपरिणाम) स्वरूप फल उत्पन्न होता है।
चतुर्थभाषारू पप्रार्थना के सार्थक्य का समर्थक शास्त्र प्रमाणःशास्त्र में कहा गया है कि,
(१) भक्तिपूर्वक उच्चारित यह 'आरुग्गबोहिलाभं....' इत्यादि भाषा अलबत्त असत्यामृषा यानी व्यवहार भाषा है। वहां रागद्वेष क्षीण कर चुके ऐसे वीतराग अर्हत्प्रभु वीतरागता की वजह से प्रार्थनाकारक के प्रति प्रसन्न नहीं होते हैं एवं समाधि और बोधि देते नहीं है।
(२) फिर भी उनकी प्रार्थना करने में यहां मृषावाद भी मत समझना; क्योंकि उनका प्रणिधान करने से उनके गुण स्वरूप फल की उत्पत्ति अवश्य होती है।
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