Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 336
________________ (ल०-प्रकृतनिदाननिषेधयुक्ति :- एत एवेष्टभावबाधकृदेतत्, तथेच्छाया एव तद्विघ्नभूतत्वात्, तत्प्रधानतयेतरत्रोपसर्जनबुद्धिभावात् (प्र०...द्धित्वात्)। (पं०-) 'अत एव' = ऋद्ध्यभिष्वङ्गतो धर्मप्रार्थनाया मोहत्वादेव, 'इष्टभावबाधकृत्', इष्टो भावो = निर्वाणानुबन्धी कुशलः परिणामः, तस्य, बाधकृत् = व्यावृत्तिकारी ‘एतत्' प्रकृतनिदानं; कुत इत्याह तथेच्छाया एव' = धर्मोपसर्जनीकरणेन ऋद्ध्यभिलाषस्यैव, 'तद्विघ्नभूतत्वाद्' = इष्टभावविबन्धक (प्र०.... विबन्धन) भूतत्वाद, एतत्कुत इत्याह 'तत्प्रधानतया' = ऋद्धिप्राधान्येन, 'इतरत्र' = धर्मे, 'उपसर्जनबुद्धिभावात्' = कारणमात्रत्वेन गौणाध्यवसायभावात् । ऋद्धि के मात्र एक साधन रूप से । इसके मन में समृद्धि ही उपादेय रही, धर्मसाध्य आत्महित नहीं । 'इस जगत में धर्म एवं शुद्ध आत्महित ही उपादेय है, ऋद्धि संपत्ति नहीं, वह तो हेय है'- ऐसा एक मात्र धर्म के प्रति शुद्ध उपादेय भाव नहीं रहा, वरन् समृद्धि उपादेय लगी। इससे तो धर्म का मुख्य स्वरूप ही नष्ट हो गया, तब फिर ऐसा उपहत धर्म इष्ट ऋद्धि को कहां से दे सके? तीर्थरपन के निदान का भी निषेध : जिस कारण से ऋद्धि की आसक्ति वश धर्म की आशंसा करनी यह मोह है, इसलिए दूसरी इन्द्रादिसंबन्धी तो क्या किन्तु अष्टमहाप्रातिहार्य आदि पूजा-भक्ति पाने वाले तीर्थंकर होने के संबन्धी आशंसा भी ऋद्धि की ही आशंसा होने से मोह रूप हैं। वह निषिद्ध है। यह आशंसा इस प्रकार होती है,- 'जिस प्रकार यह तीर्थंकर भगवान सारे विश्व में अद्भुत और वास्तविक अष्टप्रातिहार्य-समवसरणादि विभूति के भाजन हो त्रिभुवन में एकमात्र सचमुच प्रभु होते हैं, और अतिशय भक्ति के आवेग से पूर्ण भरा हुआ देवसमूह निरंतर उनकी चरणसेवा करता है, इस प्रकार का तीर्थंकर मैं भी इस तप आदि आनुष्ठान के प्रभाव से होऊ"- ऐसी ऋद्धि की आसक्ति वश आशंसा करना शास्त्र से निषिद्ध है किन्तु निरासक्त चित्तवृत्ति पूर्वक ऐसी आशंसा की जाए कि 'जैसे भगवान एकमात्र शुद्ध धर्म-मार्ग के देशक होते हैं, अनेक जीवों के प्रति हितरूप होते हैं, एवं निरुपम मोक्षसुख के उत्पादक हो अचिन्त्य चिन्तामणि रत्न के समान होते हैं, वैसा मैं भी होऊ', तब यह निषिद्ध नहीं है। ऋद्धि की आसक्ति वश आशंसा करने का श्री दशाश्रुतस्कन्धादि शास्त्रों में निषेध किया गया है। इसके संबन्ध में यह कहा गया है कि 'दशा० आदि शास्त्रो में तीर्थंकर के भी विषय के निदान का निषेध है; और वह युक्तियुक्त भी है क्योंकि वह पौद्गलिक आसक्ति वाला होने से संसार के ममत्व वाला है, संसार में रुकाने वाला है। किन्तु जो किसी भी पौद्गलीक आसक्ति से रहित हो मार्गदर्शक अनेक जीव हितकारी निरुपम सुखजनक और अपूर्व चिन्तामणि समान होने की आशंसा रूप है, वह निषिद्ध नहीं है। ऐसे निदान के निषेध में युक्ति : ऋद्धि की आसक्ति वश की जाने वाली धर्म प्रार्थना एक प्रकार का मोह ही है; इसलिए प्रस्तुत निदान, परंपरया मोक्षदायी शुभ भाव का बाधक है। कारण यह है कि उसमें धर्म की प्रार्थना तो की, लेकिन वह ऋद्धिसमृद्धि के लिए की, अतः धर्म को गौण बना के होने वाली ऋद्धि की अभिलाषा इष्ट मोक्षदायी शुभ भाव के प्रति प्रतिबन्धक रूप हुई । क्यों कि वहां चित्त में ऋद्धि ही प्रधान होने से धर्म को तो एक उसका मात्र साधनभूत बना लेने से धर्म में गौणता की बुद्धि हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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