Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 335
________________ (ल०-तीर्थकरत्वनिदाननिषेधः-) तीर्थकरे (प्र०....तीर्थकरत्वे)ऽप्येतदेवमेव प्रतिषिद्धमिति । (पं०-) यत एवं ततः 'तीर्थकरेऽपि' = अष्टमहाप्रातिहार्यपूजोपचारभाजिप्राणिविशेषे, किं पुनरन्यत्र पुरन्दरादौ विषयभूते ? 'एतत्' = प्रार्थनम्, 'एवमेव' ऋद्ध्यभिष्वङ्गेणैव, - 'यथायं भुवनाद्भुतभूतविभूतिभाजनं (प्र०... भुवनाद्भुतभूतिभाजन) भुवनैकप्रभुः प्रभूतभक्तिभरनिर्भरामरनिकरनिरन्तरनिषेव्यमाणचरणो भगवांस्तीर्थकरो वर्तते तथाहमाप्यमुतस्तपःप्रभृतितोऽनुष्ठानाद् भूयांसमि'त्येवंरूपं, न पुनर्यनिरभिष्वङ्गचेतोवृत्ते'र्द्धर्मादेशोऽनेकसत्त्वहितो निरुपमसुखसञ्जनकोऽचिन्त्यचिन्तामणिकल्पो भगवान्, अहमपि तथा स्यामि'त्येवंरूपं; 'प्रतिषिद्धं' = निवारितं दशाश्रुतस्कन्धादौ । तदुक्तं"एत्तो य दसाईसुं तित्थयरंमि वि नियाणपडिसेहो । जुत्तो भवपडिबद्धं (प्र०.... बन्ध) साभिस्संगं तयं जेणं ॥ १॥ जं पुण निरभिस्संगं धम्माएसो अणेगसत्तहिओ । निरुवमसुहसंजणओ, अउव्वचिन्तामणिक्कप्पो ॥ २ ॥ इत्यादि। प्रति द्वेष हुआ और इसके कारण उसने निदान किया कि 'मैं गुणसेन को जन्म-जन्म मारूं।' यह द्वेषजन्य निंदान हुआ। इन कथाओं में रागद्वेषजन्य निदान प्रसिद्ध होने से उनके लक्षण सुबोध हैं सुज्ञेय हैं, इसलिए उनका निर्देश छोड़कर अब मोहगर्भ निदान का लक्षण बतलाते हैं - मोहगर्भ निदान का स्वरूप: धर्म निमित्त नीच कुल यानी वैभव धन आदि से रहित कुल, एवं कुरुपता, दौर्भाग्य, अनादेयत्व (अपने वचन दूसरों से स्वीकार्य न हो, सहर्ष ग्राह्य न हो, ऐसा पापोदय) इत्यादि भवान्तर में होने की प्रार्थना करनी, आशंसा रखनी, यह मोहगर्भ अर्थात् अज्ञानमूलक निदान है । इस प्रकार की प्रार्थना करनी याने ऐसी आशंसा रखनी कि 'मुझे भवांतर में हीन कुल आदि प्राप्त हो, जिससे मैं वहां धर्म कर सकू', यह मोह गर्भ अर्थात् अज्ञानमूलक निदान है, क्योंकि धर्म हीनकुलादिहेतुक नहीं है, धर्म के प्रति हीन कुल आदि कारणभूत नहीं हैं। हीनकुल आदि पापोदय से रहित उत्तमकुल, सुरुपता वगैरह भावों से संपन्न ही भाग्यशाली भव्य लोग साङ्गोपाङ्ग धर्म के पात्र बन सकते हैं, दूसरे नहीं। देखते हैं कि नीचकुल, निर्धनता आदि वाले कई लोग कहां धर्म करते हैं ? कहा गया है कि 'जैनधर्म की प्राप्ति के लिए हीनकुल, सगे संबन्धी का अभाव या दरिद्रता की याचना करनेवाला पुरुष अगर विशुद्ध आशय वाला भी हो, तब भी उसकी यह आशंसा निदान स्वरूप है।' दूसरे प्रकार से भी ऐसे निदान का स्वरूप कहते हैं, - इन्द्र, चक्रवर्ती के वैभव के अनुराग से धर्म की भी आशंसा की जाए तब भी वह निदान है। यह समझता है कि 'सचमुच धर्म की आराधना के बिना ऐसा वैभव प्राप्त हो सकेगा नहीं, इसलिए भावी वैभव की आशा से ऐसी प्रार्थना करता है कि 'मुझे भवांतर में धर्म प्राप्त हो ताकि उससे वैभव मिले।' तब पहले कही गई नीच कुल आदि की तो क्या किन्तु ऐसी धर्म की भी प्रार्थना निदान स्वरूप है। वह भी मोहगर्भ निदान है, क्यों कि जिस वैभव-समृद्धि के निमित्त ऐसी धर्म प्रार्थना की गई वह (वैभवादि) ऐसे गौण रूप से आशंसित धर्म के द्वारा प्राप्त नहीं होती है, फिर भी प्राप्त होना मान लेने की मूढता हुई । धर्म में दो स्वरूप है, एक मुख्य स्वरूप आत्महितकरत्व, दूसरा गौण स्वरूप पौद्गलिकसमृद्धि-कारित्व । अब देखिए कि इसने धर्म की जो आशंसा की वह गौण स्वरूप समृद्धिकारित्व रूप से नहीं । अथवा कहिए इसके दिल में धर्म और समृद्धि दोनों की आशंसा है, लेकिन समृद्धि की मुख्य वृत्ति से, और धर्म की गौण वृत्ति से, IE ३१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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