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(ल०-निदानहेतुभूतमोहलक्षणम्:-) धर्माय हीनकुलादिप्रार्थनं मोहः, अतद्धेतुकत्वात् । ऋद्ध्यभिष्वङ्गतो धर्मप्रार्थनापि मोहः, अतद्वेतुकत्वादेव ।
(पं०-) धर्माय 'धर्मनिमित्तमित्यर्थः; 'हीनकुलादिप्रार्थनं', हीनं = नीचं विभवधनादिभिः, यत् 'कुलम्' = अन्वयः, आदिशब्दात् कुरूपत्व-दुर्भगत्वाऽनादेयत्वादिग्रहः; भवान्तरे तेषां प्रार्थनम् = आशंसनम् । किमित्याह 'मोहः' = मोहगर्भ निदानम् । कुत इत्याह 'अतद्धेतुकत्वाद्' अविद्यमानास्ते हीनकुलादयो हेतवो यस्य स तथा, तद्भावस्तत्त्वं, तस्मात् । अहीनकुलादिभावभाजो हि भगवन्त इव (एव) अविकलधर्मभाजनं भव्या भवितुमर्हन्ति नेतरे इति । उक्तं च, -
"हिनं कुलं बान्धववर्जितत्वम्, दरिद्रतां वा जिनधर्मसिद्ध्यै (प्र०.... ध्दौ)।
प्रयाचमानस्य विशुद्धवृत्तेः संसारहेतुर्गदितं निदानम् ॥' प्रकारान्तेणापीदमाह ऋध्यभिष्वङ्गतः' = पुरन्दरचक्रवर्त्यादिविभूत्यनुरागेण, 'धर्मप्रार्थनापि' 'नूनं धाराधनमन्तरेणेयं विभूतिर्न भविष्यती'त्याशया (प्र०....आशंसया) धर्माशंसनमपि, किं पुन_नकुलादिप्रार्थनेति 'अपि' शब्दार्थः । किमित्याह मोहः' उक्तरूपः । कुत इत्याह 'अतद्धेतुकत्वाद्' अविद्यमान उपसर्जनवृत्त्याशंसितो धर्मों हेतुर्यस्याः सा तथा, तद्भावस्तत्त्वं, तस्मादेव अनुपादेयतापरिणामेनैवोपहतत्वेन धर्मास्य ततोऽभिलषितऋद्ध्यसिद्धेः।
उ०-- आपके पहले प्रश्न के संबंध में हमारा कहना यह है कि वह 'दितु' वचन निदान नहीं है; क्योंकि निदान का लक्षण इसमें सङ्गत नहीं होता हैं । लक्षण यह है कि धर्म-कल्पवृक्ष जिस दिव्य समृद्धि आदि के आशंसापरिणाम रूप कुठार से उच्छिन्न होता है, वह आशंसापरिणाम निदान कहा जाता है। धर्म एक कल्पवृक्ष है, वह सम्यग्दर्शन के विस्तार (यानी शम-संवेगादि ५ लक्षण, ४ सद्दहणा, ३ लिङ्ग, ५ भूषण, ५ दूषणत्याग, ६ भावना, षट्स्थान इत्यादि) स्वरूप विस्तृत मूलसमुह पर सुदृढ रहता है; ज्ञान-ज्ञानी, दर्शन-दर्शनी, चारित्र-चारित्री आदि के विशुद्ध विनय-उपचार विधि स्वरूप ऊंचे स्कन्ध से बन्धा हुआ होता है; शास्त्रविहित पवित्र दान-शीलतप-भावना के कई भेद-प्रभेद स्वरूप शाखा-प्रशाखा से अत्यन्त फलाफूला रहता है; देव-मनुष्य भव में प्रादुर्भत सर्वोत्कृष्ट सुखसंपत्ति रूप पुष्पों से पर्याप्त भरा हुआ होता है; और जहाँ से समस्त दुःखों का समूह दूर रहता है ऐसे मोक्ष-आवास के सुख स्वरूप फल से वह धर्म कल्पतरु सगर्व रहता है। निदान रूप परशु तो ऐसे महान धर्म कल्पवृक्ष को भी काट देने वाला होता है। इसका कारण यह है कि निदान में पौद्गलिक सुख की प्रबल आसंसा होती है, और वह शुद्ध आत्महित की आशंसा को नष्ट कर शुद्ध धर्म की अपेक्षा का नाश कर देती है। इसलिए वहाँ धर्मकल्पवृक्ष मूलतः उच्छिन्न हो जाता है।
___ अब प्रस्तुत आरोग्यबोधिलाभादि की याचना में निदान का लक्षण नहीं घटता है। निदान का लक्षण क्या है ? वही कि द्वेष-अभिष्वङ्ग-मोह स्वरूप अन्तरङ्ग कारण से उत्पन्न हुई आशंसा, या तो किसी व्यक्ति पर मात्सर्य हुआ हो, या इन्द्रियविषयों की आसक्ति उत्थित हुई है, अगर अज्ञान हो, तो तीव्र पौद्गलिक आशंसा स्वरूप निदान किया जाता है। शास्त्रो में तत्त्वनिरुपण एवं कथाप्रसङ्गों के भीतर यह प्रसिद्ध है। चित्त और संभूति दो मुनियों में से संभूति मुनि को चक्रवर्ती की पट्टराणी का सौन्दर्य देख कर विषयासक्ति जागृत हुई और ऐसी समृद्धि प्राप्त होने का उसने निदान किया। यह रागजन्य निदान हुआ। अग्निशर्मा को समरादित्यजीव गुणसेन के
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