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(ल०-प्रार्थनात्वखण्डनम्-) आह,- 'किमेषा प्रार्थना, अथ न ? इति । यदि प्रार्थना, न सुन्दरैषा, आशंसारू पत्वात् । अथ न, उपन्यासोऽस्या अप्रयोजन इतरो वा? अप्रयोजनश्चेदचारुवन्दनसूत्रं, निरर्थकोपन्यासयुक्त (प्र०....रू प)त्वात् । अथ सप्रयोजनः, कथमयथार्थतया तत्सिद्धिरिति ।
अत्रोच्यते,-न प्रार्थनैषा, तलक्षणानुपपत्तेः । तदप्रसादाक्षेपिकैषा, तथालोकप्रसिद्धत्वात्, अप्रसन्नं प्रति प्रसाद (प्रार्थना ) दर्शनात्, अन्यथा तदयोगात्, भाव्यप्रसादविनिवृत्त्यर्थं वा, उक्तादेव हेतोः । इति उभयथापि तदवीतरागता ।
(ल०-अग्निचिन्तामणिदृष्टान्ताभ्यामर्हदुपासनाफलम्:-) अत एव स्तव (प्र०... सूत्र) धर्मव्यतिक्रमः, अर्थापत्त्याक्रोशात् अनिरू पिताभिधान (प्र०...अनिरूपितविधान )द्वारेण । न खल्वयं वचनविधिरार्याणां, तत्तत्त्वबाधनात् । वचनकौशलोपेतगम्योऽयं मार्गः ।अप्रयोजन-सप्रयोजनचिन्तायां तु न्याय्य उपन्यासः, भगवत्स्तवरू पत्वात् । उक्तं च,
क्षीणक्लेशा एतेन हिप्रसीदन्ति न स्तवोऽपि वृथा। तत्स्तवभावविशुद्धेःप्रयोजनं कर्मविगम इति।१। स्तुत्या अपि भगवन्तः परमगुणोत्कर्षरूपतो ह्येते।दृष्टा ह्यचेतनादपि मन्त्रादिजपादितः सिद्धिः।२। यस्तु स्तुतः प्रसीदति रोषमवश्यं स याति निन्दायाम्।सर्वत्रासमचितः स्तुत्यो मुख्यः कथं भवति ।३। शीतादितेषु हियथा द्वेषं वह्निर्न याति रागं वा । नाह्वयति वा तथापि च तमाश्रिताः स्वेष्टमश्नुवते।४। तद्वत्तीर्थकरान्ये त्रिभुवनभावप्रभावकान् भक्त्या ।समुपाश्रिता जनास्ते भवशीतमपास्य यान्ति शिवम्।५।
एतदुक्तं भवति, - यद्यपि ते रागादिभी रहितत्वान्न प्रसीदन्ति, तथापि तानुद्दिश्याचिन्त्य - चिन्तामणिकल्पान् अन्तःकरणशुद्धयाऽभिष्टवकर्तृणां तत्पूर्विकैवाभिलषितफलावाप्तिर्भवतीति गाथार्थः । ५ । 'प्रसन्न हों' तब इस कथन से अर्थात् प्राप्त होता है कि भगवान अप्रसन्न हैं एवं प्रसन्न होने का संभव है। यदि ऐसा न हो तो प्रसन्न होने की प्रार्थना क्यों की जाए ? और प्रसाद-अप्रसाद अवीतराग के ही धर्म हैं, तब यहां गए तो भगवान के प्रति स्तुति करने को, लेकिन फलत: उनमें अवीतरागता स्वरूप असद् दोष का आरोपण किया; ऐसा स्तुतिवचन सचमुच अस्तुतिवचन हुआ ! यह स्तुतिधर्म का अतिक्रमण हुआ ।
आर्यवचन अनुचित अर्थापत्ति वाला नहीं:
वास्तव में आर्यो की वचनपद्धति ऐसी अनुचित अर्थापत्ति वाली नहीं होती है, क्यों कि वैसी वचनपद्धति में तो वचन के स्वरूप का बाध होता है, जैसे कि यहां स्तुतिवचन से अनुचित अर्थापत्ति होने द्वारा औपचारिकता हो जाने से वास्तव स्तुतित्व का बाध आ जाएगा। वचनपद्धति तो परंपरा से भी किसी दोषारोपण से कलुषित न हो ऐसी होनी चाहिए । इसीलिए यथार्थ स्तुति करने का मार्ग तो, जो वचन कौशल्य से संपन्न हो, वही ठीक जानता है।
अग्नि-चिन्तामणि के दृष्टान्त से अर्हद्-उपासना सफल:
तब 'तित्थयरा मे पसीयंतु'-यह वचन निष्प्रयोजन है या सप्रयोजन? इसकी विचारणा पर हम कहते हैं कि इस वचन का उपन्यास युक्तियुक्त है, क्यों कि वह भगवान की स्तुतिरूप है और स्तुति सफल है। शास्त्र में कहा गया हैं कि -
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