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( ल०-द्रव्यस्तवदृष्टान्त: - ) नागभयसुतगर्त्ताकर्षणज्ञातेन भावनीयमेतत् । तदेवं साधुरित्थमेवैतत्संपादनाय कुर्वाणो नाविषयः, वचनप्रामाण्यात्, इत्थमेवेष्टसिद्धेः, अन्यथाऽयोगादिति । (पं०-) कथमित्याह 'नागे 'त्यादि, नागभयेन = सर्प्पभीत्या, सुतस्य = पुत्रस्य, गर्त्तात् श्वभ्राद्, आकर्षणम् अपनयनम्, एतदेव ज्ञातं दृष्टान्त:, तेन, 'भावनीयम्', 'एतत्' साधोर्द्रव्यस्तवकारणं देशनाद्वारेण । तथाहि, किल काचित् स्त्री प्रियपुत्रं रमणीयरूपमुपरचय्य रमणाय बहिर्मन्दिरस्य विससर्ज । स चातिचपलतया अविवेकतया च इत इतः पर्य्यटनवटप्रायमतिविषमतटमेकं गर्त्तमाविवेश । मुहूर्त्तान्तरे च प्रत्यपायसम्भावनया चकितचेता माता तमानेतुं तं देशमाजगाम, ददर्श च गर्त्तान्तर्वर्त्तिनं तं निजसूनुं, तमनु प्रचलितम् आकालिक को पत्र सरमा (प्र०.... अनाकलितक को पप्रशमा) ञ्जनपुञ्जकालकायमुद्घाटितातिविकटस्फुटाटोपं पन्नगम् ।
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प्रo - तब भी हिंसादोषयुक्त द्रव्यस्तव समूचा निष्पाप तो नहीं है, और साधु उसे कराता है तो अक्सर अमुक दोष की निवृत्ति के साथ साथ अन्य दोष में प्रवृत्ति कराना तो हुआ न ?
उ०- नहीं, यहां उपदेश का दृष्टिबिन्दु समझिए, द्रव्यस्तवकर्ता की क्रिया में दो अंश हैं, १. सांसारिक बड़े दोष वाली क्रिया से निवृत्ति और २. प्रभुपूजन की शुभ प्रवृत्ति के अन्तर्गत पुष्पादिक्लेश । अब देखिए कि द्रव्यस्तव का उपदेश करने में प्रयोजक अंश, अन्य बडे दोषों से निवृत्त कराना, यह है, अर्थात् गृहस्थ को पूजा द्वारा महादोष के निवृत्ति का लाभ मिले इतना ही उद्देश उपदेश का प्रवर्तक है, नहीं कि पुष्पादि को क्लेश का उद्देश । अलबत्ता गृहस्थ को वहां कुछ हिंसा की प्रवृत्ति रहती है लेकिन उसे महादोष से निवृत्ति का बड़ा लाभ मिलता है और ऐसी निवृत्ति हेतु गृहस्थ के लिए द्रव्यस्तव जैसा कोई अन्य उपाय नहीं है।
प्र०
- क्यों नहीं ? सामायिक, भगवान का जाप, स्तोत्रपाठ, स्वाध्याय आदि निर्दोष उपाय में लगने से कृषि आदि बडे दोष वाली क्रिया से निवृत्ति हो सकती है न ?
उ०- यों तो देखिए कि मूल बडे दोष ममता तृष्णा और अहंत्व के है । गृहस्थ के सामायिकादि में ममता-तृष्णादि का इतना कटना मुश्किल है क्यों कि वहां कोई द्रव्यव्यय नहीं है, जब कि जिनपूजा सत्कार में द्रव्यव्यय करना होता है इससे वह कटती आती है । एवं अरिहंत प्रभु की अभिषेकादि पूजा करने में नम्रतासेवकभाव-समर्पण भी बढता आता है इससे अहंत्व का ह्रास होता रहता है । इन्द्रियविषय एवं कृषि आदि में तो प्रवृत्ति ममतातृष्णा एवं अहंत्वमूलक हिंसादि बडे दोष से युक्त होती है। इनसे बचने के लिए जिनपूजासत्कार का द्रव्यस्तव गृहस्थ के लिए अनन्य उपाय है ।
द्रव्यस्तव की निर्दोषता में 'सर्पमय पुत्राकर्षण' दृष्टान्तः
सावद्य द्रव्यस्तव को भी उपदेश द्वारा कराना निर्दोष है इसमें 'नागभय- सुतगर्ताकर्षण' अर्थात् सर्प के भय से पुत्र को खड्डे में से घसिट लेने का दृष्टान्त है । इस दृष्टान्त से उपदेश द्वारा साधु का द्रव्यस्तव कराना युक्तियुक्त है - यह बात मनन करने योग्य है । दृष्टान्त इस प्रकार है. - किसी एक स्त्री ने अपने पुत्र को कभी मनोहर रूप वाला बना कर क्रीडार्थ घर से बाहर भेज दिया। वह लडका अति चंचल एवं अविवेकी होने से इधर उधर भटकता हुआ किसी एक खड्डे में उतर गया। खड्डा एक कूप के समान गहरा था, और उसकी दीवारें विषम (खुरदरा, कर्कश ) थी। दो घटिका के बाद माता को पुत्र वापस न लौटने से कुछ अनर्थ की आशङ्का हुई, और
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