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(ल०-श्रावकत्वं जिनपूजालालसत्वम्:-) श्रावक स्तु सम्पादयन्नप्ये तो भावातिशयादधिकसम्पादनार्थमाह । न तस्यैतयोः संतोषः, तद्धर्मस्य तथास्वभावत्वात् । जिनपूजासत्कारयोः करणलालसः खल्वाद्यो देशविरतिपरिणामः, औचित्यप्रवृत्तिसारत्वेन; उचितौ चारम्भिण एतौ, सदारम्भरू पत्वात्, औचित्याज्ञामृतयोगात्, असदारम्भनिवृत्तेः, अन्यथा तदयोगादतिप्रसङ्गादिति ।।
(पं०-) 'तद्धम्म 'त्यादि, तद्धर्मास्य श्रावक धर्मास्य, 'तथास्वभावत्वात् ' = जिनपूजासत्कारयोराकाङ्क्षातिरेकात् असंतोषस्वभावत्वात् । एतदेव भावयति, 'जिनपूजासत्कारयोः' उक्तरूपयोः, 'करणलालस एव' विधानलम्पट एव, 'खलु' शब्दस्यैवकारार्थत्वात्, 'आद्यः' = आरम्भ (प्र०... सचित, सचित्तारम्भ)वर्जाभिधानाष्टमप्रतिमाभ्यासात् प्राक्कालभावी, 'देशविरतिपरिणामः' = श्रावकाध्यवसायः । कुत इत्याह 'औचित्यप्रवृत्तिसारत्वेन' = निजावस्थाया आनुरूप्येण या प्रवृत्तिः चेष्टा तत्प्रधानत्वेन । औचित्यमेव भावयन्नाह 'उचितौ च' = योग्यौ च, 'आरम्भिणः' = तत एव पृथिव्याद्यारम्भवतः, 'एतौ' = पूजासत्कारौ कुत इत्याह- 'सदारम्भरू पत्वात्, सन् = सुन्दरो जिनविषयतया, आरम्भः = पृथिव्याधुपमर्दः, तद्रूपत्वात् । आरम्भविशेषेऽपि कथमनयोः सदारम्भत्वमित्याशङक्याह 'आज्ञामतयोगात. 'आजैव' जिनभवनं जिनबिम्बमित्याद्याप्तोपदेशरूपा, 'अमृतम्' अजरामरभावकारित्वात्, तेन योगात् । आज्ञापि किंनिबन्धनमित्थमित्याशक्याह 'असदारम्भनिवृत्तेः,' असतः = इन्द्रियार्थविषयतया असुन्दरस्य, आरम्भस्य, ततो वा, जिनपूजादिकाले निवृत्तेः । ननु तन्निवृत्तिरन्यथापि भविष्यतीत्याशङ्क्याह 'अन्यथा' = आज्ञामृतयुक्तौ पूजासत्कारौ विमुच्य, 'तदयोगाद्' = असुन्दरारम्भनिवृत्तेरयोगात् । विपक्षे बाधामाह 'अतिप्रसङ्गात्' = प्रकारान्तरेणाप्यसदारम्भनिवृत्त्यभ्युपगमे द्यूतरमणान्दोलनादावपि तत्प्राप्त्यातिप्रसङ्गादिति । 'इतिः' वाक्यसमाप्तौ । का स्पर्श कैसे हो सके? श्रावकपन की जिनपूजादि के साथ व्याप्ति है, क्यों कि श्रावकपन उचितप्रवृत्ति-प्रधान होता है, अर्थात् अपने धर्मस्थान के अनुरूप प्रवृत्ति की मुख्यता वाला होता है। यहां औचित्य यानी अनुरूप प्रवृत्ति यही, कि पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों की हिंसा में बैठे हुए गृहस्थ के लिए अपने अनन्तोपकारक इष्टदेव की पूजा एवं सत्कार करना यह कृतज्ञता आदि की वजह से उचित कर्तव्य है। अलबत्त पूजासत्कार में पृथ्वीकायादि जीवों का आरम्भ (उपमर्द) अवश्य है, लेकिन वे पूजा सत्कार जिनेन्द्रदेव के भक्ति-बहुमान संबंध में होने से श्रद्धा बढाने वाले एवं महा अहिंसादि धर्म सन्मुख ले जाने वाले होते हैं, इसलिए वे सुन्दरआरंभ स्वरूप है।
प्र०- पूजा सत्कार में भी एक तरह का हिंसारम्भ तो है ही, वह भले विशिष्ट कोटि का हो, फिर भी वे पूजा सत्कार सुन्दर आरम्भ कैसे?
उ०-आज्ञारूप अमृत के योग से सद्-आरम्भ रूप है। आप्त पुरुषों का उपदेश है कि "जिनभवनं जिनबिम्बं, जिनपूजां, जिनमतं च यः कुर्यात् । तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपल्लवस्थानि।"
अर्थात् जिनमन्दिर, जिनमूर्ति, जिनपूजा और जिनाज्ञापालन जो करे, उसे मनुष्य, देव, और मोक्ष के सुख स्वरूप फल हस्तगत होते हैं, करपल्लव में आ बैठते हैं ।
ऐसी उपदेशात्मक आज्ञा अजरामरता करने वाली होने से एक अमृत है, इसका विषय पूजा सत्कार पड़ता है, जो कि आज्ञाविहित होने के कारण इसका आरम्भ सद्-आरम्भ रूप है। वैसी आज्ञा भी करने का कारण
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