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(ल०-कषायकटुकत्वं शममाधुर्यम्-) कषायादिकटुकत्वनिरोधतः शममाधुर्यापादनसाम्येन चेतस एवमुपन्यास इति । एतदनुष्ठानमेव चैवमिहोपायः तथा तथा सद्भावशोधनेनेति परिभावनीयम् । उक्तं च परैरपि
'आदर: करणे प्रीतिरविघ्नः संपदागमः । जिज्ञासा तज्ज्ञसेवा च, सदनुष्ठानलक्षणम् ॥ १ ॥ अतोऽभिलषितार्थाप्तिस्तत्तद्भावविशुद्धितः । यथेक्षोः शर्कराप्तिः स्यात्क्रमात्सद्धेतुयोगतः ॥ २ ॥ इत्यादि ।
(पं०-) आह किमिति दृष्टान्तान्तरव्युदासेनेक्ष्वाद्युपमोपन्यास इत्याशङ्क्याह कषायादिकटुकत्वनिरोधतः, कषायाः क्रोधादयः, आदि' शब्दादिन्द्रियविकारादिग्रहः, त एव कटुकत्वं कटुकभावः, तस्य निरोधादात्मनि, किमित्याह 'शममाधुर्यापादनसाम्येन', शमः उपशमः, स एव माधुर्यं मधुरभावः शुभ (प्र०.... शुद्ध) भावप्रोणनहेतुत्वात्, तस्य आपादनं विधानं, तेन तस्य वा साम्यं सादृश्यं; तेन चेतसो मनसः, 'एवम्' इक्ष्वाद्युपमानोपमेयतयोपन्यास आदरादीनाम्, 'इतिः' परिसमाप्तौ । 'उपायवत' इति प्रागुक्तम्, अत उपायमेव दर्शयति, - 'एतदनुष्ठानमेव च' प्रकृतकायोत्सर्गविधानमेव, न पुनरन्यत्, 'चः' समुच्चये, ‘एवम्' इति सामान्येनादरादियुक्तम्, ‘इह' इति शर्करादिप्रतिमश्रद्धादिभवने, 'उपायः' हेतुः, कृत इत्याह 'तथा तथा' तत्तत्प्रकारेण, 'सद्भावशोधनेन' शुद्धपरिणामनिर्मलीकरणेन, 'इति' एतत्, ‘परिभावनीयम्' अन्वयव्यतिरेकाभ्यामालोचनीयमेतद् । इदमपि परमतेन संवादयन्नाह उक्तं च', 'परैरपि' मुमुक्षुभिः । किमुक्तमित्याह 'आदरेत्यादिश्लोकद्वयं' सुगमम् । नवरम् 'अविघ्न' इति सदनुष्ठाननिहतक्लिष्टकर्म (प्र०.... दुःकर्म)तया सर्वत्र कृत्ये विघ्नाभावः। श्रद्धादि एवं आदरादि का उपमान-उपमेय भाव युक्तियुक्त है, उचित है।
कायोत्सर्ग का महत्त्व : -
पहले श्रद्धादि के उपाय में प्रवर्तमान को ऐसा कह आये हैं, वहां 'उपाय' शब्द से प्रस्तुत कायोत्सर्ग का सद्अनुष्ठान ही ग्राह्य है, कोई दूसरा अनुष्ठान नहीं । वह भी सामान्यतः आदरादि-युक्त करना चाहिए । ऐसे कायोत्सर्ग का विधान शक्कर आदि तक के समान श्रद्धादि निष्पन्न होने में उपायभूत है, क्यों कि इसके द्वारा ऐसे ऐसे प्रकार से शुभ भाव या शुद्ध भाव की उत्पत्ति यानी भाव का शोधन होता है, अर्थात् कायोत्सर्ग से प्रारम्भिकप्राथमिक चित्त-परिणाम का निर्मलीकरण होता आता है, जो कि इक्षु-रस-गुड आदि दृष्टान्त के क्रम से शक्कर तुल्य शुद्ध परिणाम स्वरूप उच्च श्रद्धादि में पर्यवसित होता है। आदरादि पूर्वक कायोत्सर्ग-विधान से ऐसा श्रद्धादि शोधन क्यों, यह अन्वय व्यक्तिरेक से विचारणीय है। (उसके होने पर उसका होना, यह 'अन्वय' है, न होने पर न होना यह 'व्यतिरेक' है।) पर मत का भी संवाद इसमें मिलता है; जैसे कि अन्यों ने कहा है,
आदरः करणे प्रीतिरविघ्नः संपदागमः । जिज्ञासा तज्ज्ञसेवा च सदनुष्ठानलक्षणम् ॥ अतोऽभिलषितार्थाप्तिस्तत्तद्भावविशुद्धितः । यथेक्षोः शर्कराप्तिः स्यात्क्रमात्सद्धेतुयोगतः ॥
अर्थात् - (१) अनुष्ठान में आदर यानी बहुमानयुक्त प्रयत्न, जिससे करने में प्रीति, रस हो, (२) विघ्न पर विजय-सदनुष्ठान के बल से क्लिष्ठ कर्म नष्ट हो जाने से सर्वत्र कृत्य में विघ्न का अभाव; (३) संपत्ति का आगमन, अर्थात् नये नये शुभ की प्राप्ति: (४) नये नये तत्त्व और विधान की जिज्ञासा, एवं (५) तज्ज्ञ पुरुष की सेवा-शुपूश्रा ... ये पांच सदनुष्ठान के लक्षण हैं। इनसे संपन्न सदनुष्ठान के द्वारा, उस उस प्रकार की विशुद्धि होते होते इष्ट अर्थ की
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