________________
(ल०-) उपाधिशुद्धं परलोकानुष्ठानं निःश्रेयसनिबन्धमिति ज्ञापनार्थममीषामिहोपन्यासः । उक्तं चागमे,'वयभङ्गे गुरुदोसो थेवस्सवि पालणा गुणकरी उ । गुरुलाघवं च णेयं, धम्ममि अओ उ आगारा ॥१॥' इति । एतेनार्हच्चैत्यवन्दनायोद्यतस्योच्छ्वासादिसापेक्षत्वमशोभनम्, अभक्तेः, न हि भक्ति निर्भरस्य क्वचिदपेक्षा युज्यते, इत्येदपि प्रत्युक्तम, उक्तवदभक्त्ययोगात् । तथाहि,- का खल्वत्रापेक्षा ? अभिष्वङ्गाभावाद्, आगमप्रामाण्यात् । उक्तं च,
___उस्सासं न निलं भइ आभिग्गहिओ वि किमुय चेट्टाए ? सज्जमरणं निरोहे सुहुमुस्सासं तु जयणाए॥
न च मरणमविधिना प्रशस्यत इति, अर्थहानेः, शुभभावनाद्ययोगात्, स्वप्राणातिपातप्रसङ्गात्, तस्य चाविधिना निषेधात् । उक्तं च,
सव्वत्थ संजमं, संजमाओ अप्पाणमेव रक्खिज्जा ।मुच्चइ अइवायाओ, पुणो विसोही न याविर्ख ॥ कृतं प्रसंगेन।
प्रस्तुत आगारों का विभागीकरण :
इस सूत्र से प्रतिपादित किये गए आगार कई प्रकारों में विभाजित होते हैं; जैसे कि, - १ सहज, २ आगन्तुक अल्पनिमित्तक, ३ आगन्तुक बहुनिमित्तक, ४ नियमभावी अल्प, और ५ बाह्यनिमित्तक बाह्य । ये अतिचार की जातियां हैं, जिनमें स्थिर निश्चेष्ट रखी गई काया का भी अतिचरण यानी सचेष्ठता होती है। . १. उच्छ्वास और निःश्वास के ग्रहण से सहज जाति के अतिचार कह गए हैं, क्यों कि वे सचेतन देह से प्रतिबद्ध हैं। •२. खांसी, छींक, और जम्भाई के ग्रहण से अल्प निमित्त वाले आगन्तुक अतिचार कहे गये हैं क्यों कि अत्यल्प वायुक्षोभादि के जरिए वे उठते हैं। . ३. डकार, अधोवायुसंचार, चकरी, एवं पित्तवश मूर्छा के ग्रहण से फिर बहुनिमित्त वाले आगन्तुक कहे गए हैं: क्योंकि महाअजीर्ण की वजह से उनका होना उत्पन्न हैं। • ४. सूक्ष्म अंग संचार-कफसंचार-दृष्टिसंचार के ग्रहण से नियमभावी (अवश्य होनेवाले) अल्प अतिचरण कहे गए हैं; क्यों कि पुरुषमात्र में वे होते ही है। . ५. 'एवमाईएहिं' पद से इत्यादि सूचित आगार के ग्रहण द्वारा बाह्य निमित्त वाले बाह्य आगार कहे गए, क्यों कि वे उनके द्वारा जन्म पाते हैं; उदारहणार्थ बाह्य ज्योतिस्पर्श के कारण बाह्य कंबल से देहच्छादन रूप कायक्रिया करनी पड़ती है, अन्यथा उसमें तेजस्काय जीवों की विराधना होती है
भक्त को आगार की अपेक्षा क्यों ? :
यहां जो आगारों का उपन्यास किया गया यह सूचित करने के लिए कि परलोकानुष्ठान वही मोक्ष साधक होता है जो उपाधिशुद्ध होता है, अर्थात् अपनी अनिवार्य और आवश्यक विशेषताओं से संपन्न होता है। आगम में ऐसा कहा है कि
'वयभङ्गे गुरुदोषो, थेवस्सवि पालणा गुणकरी उ । गुरुलाघवं च णेयं, धम्मंमि अओ उ आगारा ॥' अर्थात्-प्रतिज्ञा के खण्डन में महान दोष है, और अल्प भी पालन गुणकारी है। धर्म की साधना करने में गौरव-लाघव का विचार करना; बहुत गुण एवं अनिवार्य अल्प दोष का ख्याल रखना, ताकि अल्प गुण के लोभवश महान दोष न लग जाए । इसीलिए आगार का विधान है। यदि बिना आगार रखे प्रतिज्ञा की जाए, तो प्रतिज्ञा का पालन अशक्य होने से उसके भङ्ग होने का या अविधिमरण का महादोष उपस्थित होता है। इससे इस अज्ञानमूलक प्रश्न का खण्डन हो जाता है, -
२८६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org