Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 316
________________ (ल०- आचरणा-प्रमाणम् :- ) न चेदं साध्वादिलोकेनानाचरितमेव, क्वचित्तदाचरणोपलब्धेः, आगमविदाचरणश्रवणाच्च । न चैवंभूतमाचरितमपि प्रमाणं, तल्लक्षणायोगात् । उक्तं च, असढेण( प्र०हि)समाइण्णं जं कत्थइ केणई असावज्जं । ण णिवारियमन्नेहि य बहुमणुमयमेयमायरियं ॥ न चैतदसावद्यं सूत्रार्थविरोधात् (प्र०....न चैतत् सावद्यं, सूत्रार्थविरोधात् ), सूत्रार्थस्य प्रतिपादितत्वात्, तस्य चाधिकतरगुणान्तरभावमन्तरेण तथाकरण ( प्र०....तथाऽकरण ) विरोधात् । न चान्यैरनिवारितं, तदासेवनपरैरागमविद्भिर्निवारितत्वात् । अत एव न बहुमतमपीति भावनीयम् । अलं प्रसंगेन, यथोदितमान एवेह कायोत्सर्ग इति । प्र० - दिवस के अतिचार तो अनियत होने से वहाँ 'आदि' शब्द से मुखवस्त्रिका की तरह शेष उपकरण का ग्रहण यानी असाक्षाद् ग्रहण युक्तियुक्त है; लेकिन वन्दन तो नियत है, तब उसका असाक्षाद् ग्रहण कैसे किया जाए ? उ०- नहीं, वहाँ भी रजोहरणादि उपधि (उपकरण) का प्रत्युपेक्षण नियत ही है । प्र० - भले हो, लेकिन समान जातीय के ग्रहण से यहाँ तो रजोहरणादि का ग्रहण किया ही गया है, और वे शेष,उपकरण मुखवस्त्रिका के समानजातीय हैं। किन्तु वन्दन में कहां समानजातीयता है ? उ०- वहाँ भी कह सकते हैं कि प्रस्थापन - प्रतिक्रमण के साथ वन्दन की आठ श्वासोच्छ्वासप्रमाण कायोत्सर्ग स्वरूप समानजातीयता है ही । इसलिए वन्दन- कायोत्सर्ग के सूत्र से की जाने वाली प्रतिज्ञानुसार उक्तप्रमाण कायोत्सर्ग करना ही चाहिए। अतः सिर्फ हस्त-लम्बनमात्र का अभिनिवेश छोडिए । प्रामाणिक आचरणा-प्रमाण के लक्षण : ऐसा मत कहो कि 'यह आठ श्वासोच्छ्वासप्रमाण कायोत्सर्ग किसी साधु वगैरह लोगों के द्वारा आचरित ही नहीं है।' क्यों कि कहीं उसकी आचरणा देखने में आती है और आगमज्ञ पुरुष उसका आचरण करते थे, ऐसा सुना जाता है और यह भी लक्ष में रहे कि जैसी तैसी यथेच्छ आचरणा भी प्रमाणभूत नहीं होती है, कारण प्रामाणिक आचरणा के लक्षण उसमें नहीं मिलते हैं । प्रामाणिक आचरणा के संबन्ध में शास्त्र में कहा गया है कि, 'असढेण समाइण्णं जं कत्थइ केणई असावज्जं । ण णिवारियमण्णेहि य बहुमणुमयमेयमायरियं ॥' अर्थात्-जो (१) कहीं भी किसी अशठ यानी दम्भरहित सरल पुरुष से आचरित है, (२) निरवद्य (निष्पाप) हैं, (३) अन्य आचार्यों के द्वारा निषिद्ध (निर्वारित) नहीं किया गया है, और (४) बहु मान्य किया गया है, वह 'आचरित' याने आचरणा - प्रमाण कहा जाता है । प्रमाण दो प्रकार का होता है, आगम प्रमाण और आचरणाप्रमाण | आगमप्रमाण अर्थात् स्पष्ट आगमपाठ । - अब जो अष्टोच्छ्वासरहित केवल कायोत्सर्ग रूप यथेच्छ आचरणा है वह निर्दोष नहीं है, क्योंकि उसमें सूत्रोक्त वस्तु का विरोध आता है; सूत्रोक्त वस्तु पहले कह आये है । और यह भी बात है कि वैसा केवल कायोत्सर्ग करने में कोई अधिक लाभ न हो तब वैसा करना यह सूत्रोक्त से विरुद्ध है । अपरंच वैसे अष्टोच्छ्वास शून्य कायोत्सर्ग का अन्य आचार्यों ने निषेध नहीं किया है ऐसा भी नहीं, अष्टोच्छ्वासयुक्त कायो० का आचरण करनेवाले अन्य आगमविद् पुरुषों ने उसका प्रतिषेध भी किया है। इसीलिए वैसा केवल कायोत्सर्ग बहुजन मान्य भी नहीं है। Jain Education International २९१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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