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चतुर्विशति-स्तव ('लोगस्स उज्जोअगरे') सूत्र (ल०-लोकशब्दार्थ:-) पुनरत्रान्तरेऽस्मिन्नेवावसप्पिणीकाले ये भारते तीर्थकृतस्तेषामवैकक्षेत्रनिवासादिनाऽऽसन्नतरोपकारित्वेन कीर्तनाय चतुर्विंशतिस्तवं पठति पठन्ति वा । स चायम्,
'लोगस्स उज्जोअगरे धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसंपि केवली ॥'
अस्य व्याख्या,-'लोकस्योद्योतकरानि 'त्यत्र विज्ञानाद्वैतव्युदासेनोद्योत्योद्योतकयोर्भेदसंदर्शनार्थं भेदेनोपन्यासः । लोक्यत इति लोकः । लोक्यते प्रमाणेन दृश्यत इति भावः । अयं चेह तावत्पञ्चास्तिकायात्मको गृह्यते । तस्य लोकस्य किम् ? उद्योतकरणशीला उद्योतकरास्तान्, केवलालोकेन तत्पूर्वकवचनदीपेन वा सर्वलोकप्रकाशकरणशीलानित्यर्थः ।
है। इसलिए पारते समय ऐसा नमस्कार अवश्य कहना चाहिए। यहां नमस्कार में बिना 'नमो अरिहंताणं' उच्चार के काम नहीं चल सकता, क्यों कि 'नमुक्कारेणं' 'नमस्कारेण' पाठ में 'नमस्कार' शब्द इसी में रुढ़ है; अन्यथा ऐसा उच्चार अगर न करे और इसके स्थान में इसी अर्थ वाला 'मैं अरिहंत को नमस्कार करता हूँ' वैसा कुछ पढे तो भी दोष लगने का संभव है। अन्य मन्त्रादि में वैसा देखा भी जाता है की मन्त्राक्षर के निजी शब्दों को छोडकर यदि उसके भावार्थ का उच्चारण करे, तो लाभ नहीं होता है, खुद मन्त्रादि अक्षरशः पढ़ना होता है। इसी प्रकार यहां भी 'नमो अरिहंताणं' पद का ही उच्चारण करना।
यह तो एक साधक की बात हुई। किन्तु कायोत्सर्ग करने वाले साधक यदि अनेक हों, तो उनमें से एक पुरुष ही स्तुति पढे और उस समय अन्य सब जहां तक स्तुति समाप्त न हो वहां तक बिना पारे कायोत्सर्ग में ही रहें। यहां वृद्ध पुरुषों का ऐसा कथन है कि जिस मन्दिर आदि में चैत्यवन्दन करना अभिप्रेत है, वहां जिस तीर्थङ्कर भगवान की स्थापना मूर्ति का संनिधान है, उसीको उद्देश रख कर पहला कायोत्सर्ग और स्तुति की जाती है। इसका कारण यह है कि वही भगवान साधक में तथाविध प्रशस्त अध्यवसाय को उत्पन्न करने में हेतु होने से उपकारक हैं। एक के द्वारा स्तुति का उच्चारण होने के बाद अन्य सब 'नमो अरिहंताणं' का उच्चारण कर कायोत्सर्ग पारें। इस प्रकार वन्दना-कायोत्सर्ग सूत्र समाप्त हुआ।
चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स उज्जोअगरे) सूत्र पहली गाथा : 'लोक' शब्द का अर्थः -
कायोत्सर्ग एवं पहली स्तुति के बाद वहां अब एक या अनेक साधक चतुर्विंशति-स्तव (लोगस्स उज्जोअगरे०) सूत्र, इसी अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में जो २४ तीर्थंकर भगवान हुए उनके कीर्तन के लिए, बोलते हैं; क्यों कि वे उन साधकों के एक ही क्षेत्र में निवास, उपदेशदान, इत्यादि द्वारा निकट के उपकारी हैं। सूत्र की १ली गाथा इस प्रकार है,
'लोगस्स उज्जोअगरे धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली ॥'
अर्थ - लोक का उद्योत करने वाले, धर्म तीर्थंकर, जिन, अरिहंत, ऐसे चोबीसों केवलज्ञानी (प्रभुओं) का मैं कीर्तन करुंगा॥
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