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(ल०-अष्टोच्छ्वासकायोत्सर्गनिषेधकमतखण्डनम् :- ) इह च प्रमादमदिरामदापह (प्र०.... हृ )त भगवद्वचनमनालोच्य तथाविधजनासेवनमेव
प्रमाणयन्तः
यथावस्थितं पूर्वापरविरुद्धमित्थमभिदधति, - 'उत्सूत्रमेतत्, साध्वादिलोकेनानाचरितत्वात्' । एतच्चायुक्तम्, अधिकृतकायोत्सर्गसूत्रस्यैवार्थान्तराभावात्, उक्तार्थतायां चोक्ताविरोधात् ।
(पं०-) ‘उक्तार्थे 'त्यादि, उक्तो = व्याख्यातः कायोत्सर्गलक्षणो अर्थः = अभिधेयं, यस्य प्रकृतदण्डकस्य तद्भावस्तत्ता, तस्यां, ‘च' = पुनरर्थे; 'उक्ताविरोधात्' = अष्टोच्छ्वासमानकायोत्सर्गाविरोधात् ।
चेतसो
यह काल के निर्णय के अर्थ में है । 'अरिहंताणं' = अशोकवृक्षादि आठ महाप्रतिहार्य स्वरूप पूजा के जो योग्य है, अर्ह है, उनके । 'भगवंताणं' = सकल ऐश्वर्य आदि स्वरूप 'भग' है जिनको, वैसे भगवान के । अरिहंत भगवान के संबन्धी 'नमुक्कारेणं' = नमो अरिहंताणं इस प्रकार उच्चारण से नमस्कार द्वारा। 'न पारेमि' = (कायोत्सर्ग) पूर्ण न करूं । तब तक क्या ? - यह कहते हैं 'ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झागेणं अप्पाणं वोसिरामि' अर्थात् वहां तक अपनी काया का स्थान से, मौन से, एवं ध्यान से व्युत्सर्ग करता हूँ । 'ताव' = तावत्, वहां तक; इससे काल का निर्देश किया। ‘कायं' = देह को | 'ठाणेणं' = कायोत्सर्ग में कारणभूत ऐसी ऊर्ध्व खड़े रहने की अवस्था से | ‘मोणेणं' = वाणी के निरोध स्वरूप मौन से । 'झाणेणं' धर्मध्यानादि से । 'अप्पाणं' अपनी; प्राकृत भाषा की शैली से यह अर्थ है; दूसरे लोग वह शब्द बोलते ही नहीं है। 'वोसिरामि' = परित्याग करता हूँ। यहां यह भावना है कि काया को स्थान, मौन एवं ध्यान की क्रिया से अतिरिक्त दूसरी किसी भी क्रिया के संबन्ध को अपेक्षा से काया का त्याग कर देता हूँ । तब, नमस्कार- पाठ पढ़ने तक दोनों हाथ नीचे लम्बे लटकते रख कर, बोलना बंद कर, निर्धारित प्रशस्त ध्यान से युक्त हो मैं खड़ा रहता हूँ, -यह निश्चित किया जाता है। बाद में कायोत्सर्ग करते हैं, कायोत्सर्ग-अवस्था में रहते हैं ।
कायोत्सर्ग का जघन्य प्रमाणः
छोटे में छोटा कायोत्सर्ग भी आठ श्वासोश्वास प्रमाण होता है। पहले कह आये हैं 'पायसमा ऊसासा' इस आगम-वचन से श्वासोच्छ्वास को पाद यानी श्लोक के चौथे हिस्से समान जानना ।
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आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग न मानने वाले का मतः
यहां अब प्रमादमदिरा के मद से उपहत चित्त वाले लोग भगवान के यथावस्थित वचन को न समझ कर वैसे ही अविचारक जन ही आचरणा को प्रमाण मानते हुए इस प्रकार पूर्वापरविरुद्ध प्रतिपादन करते है कि ‘आठ श्वासोच्छ्वास के जघन्य कायोत्सर्ग-प्रमाण का कथन उत्सूत्र है, क्यों कि साधु एवं गृहस्थ लोग से वैसा आचरित नहीं है ।'
आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग का समर्थन
किन्तु यह उत्सूत्र का आक्षेप अयुक्त है, क्योंकि प्रस्तुत कायोत्सर्ग के सूत्र का ही वैसा अर्थ है, इतने जवन्य प्रमाण को छोड़कर दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता। कारण यह है कि प्रस्तुत दण्डकसूत्र से, कायोत्सर्ग स्वरूप जिस अभिधेय की व्याख्या की गई उसका आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग के साथ कोई विरोध नहीं है ।
कायोत्सर्ग
उच्छ्वास-मान का खण्डन : ---
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