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(ल०-'धारणाए' : मुक्ताफलमालाप्रोतकोपमाः-) एवं धारणया, न चित्तशून्यत्वेन । धारणा' अधिकृतवस्त्वविस्मृतिः । इयं चेह ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमसमुत्था अविच्युत्यादिभेदवती प्रस्तुत (प्र०....प्रज्ञात) वस्त्वानुपूर्वीगोचरा चित्तपरिणतिः, जात्यमुक्ताफलमालाप्रोतकदृष्टान्तेन तस्य यथा तथोपयोगदाात् अविक्षिप्तस्य सतो यथार्ह विधिवदेतत्प्रोतनेन गुणवती निष्पद्यते अधिकृतमाला; एवमेतद्बलात् स्थानादियोगप्रवृत्तस्य यथोक्तनीत्यैव निष्पद्यते योगगुणमालापुष्ट (प्र०....पुष्टि) निबन्धनत्वादिति ।
(पं०- ) अविच्युत्यादिभेदवती'ति = अविच्युतिस्मृतिवासनाभेदवतीति ।
(ल०-'अणुप्पेहाए' : रत्नशोधकानलोपमा- ) एवमनुप्रेक्षया, न प्रवृत्तिमात्रतया । अनुप्रेक्षा नाम तत्त्वार्थानुचिन्ता । इयमप्यत्र ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमसमुद्भवोऽनुभूतार्थभ्यासभेदः (१) परमसंवेगहेतुः (२) तद्दाद्यविधायी (३) उत्तरोत्तरविशेषसम्प्रत्ययाकारः (४) केवलालोकोन्मुखश्चित्तधर्मः । यथा रत्नशोधकोऽनलः रत्नमभिसंप्राप्तः रत्नमलं दग्ध्वा शुद्धिमापादयति, तथानुप्रेक्षानलोऽप्यात्मरत्नमुपसंप्राप्तः कर्ममलं दग्ध्वा कैवल्यमापादयति तथातत्स्वभावत्वात् (प्र०.... तथास्वभावात् ) इति । अविच्युति = श्रवण-दर्शन आदि करते समय ऐसा अवधारण कि उसका विषय मन में से निकल न जाए, च्युत न हो आए । स्मृति अवधारित का स्मरण । वासना आगे स्मरण हो सके वैसी संस्काररूप से रक्षा । इन तीनों प्रकार
की धारणा प्रस्तुत वस्तु के क्रम को विषय करने वाली चित्त परिणाम स्वरूप होती है, अर्थात् वस्तुक्रम को पकड़ रखने वाला, मन का, एक परिणाम यह धारणा है। इसमें दृष्टान्त है सच्चे मोतीयों की माला के पिरोने वाले का,तदनुसार वहां उसे वैसी वैसी चित्तोपयोग की दृढ़ता वश ऐसी धारणात्मक चित्तपरिणति संपन्न होती है। जितनी जितनी उपयोग की दृढ़ता, इतनी इतनी सतेज धारणा मोती माला का पिरोने वाला चित्तविक्षेप छोडकर अर्थात् चित्त को और कहीं भी न ले जाता हुआ प्रस्तुत पिरोने की क्रिया में लगाकर यथायोग्य विधिपूर्वक मोतीयों के पोने का काम करता है; इससे वह माला गुणवती निष्पन्न होती है । इस प्रकार इस धारणावश स्थान-वर्ण अर्थआलम्बनयोग में प्रवर्तमान साधक को यथोक्त रीति से अर्थात् विक्षेपत्याग एवं विधिपूर्वक क्रमशः वस्तु का दृढ ग्रहण करने से योग-गुणों की माला निष्पन्न होती है। गुणमाला की निष्पत्ति होने का कारण (१) यहां आलम्बन यानी विषय पुष्ट है; कायोत्सर्ग एवं उसका विषय यह सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र का पोषक है। (२) अथवा वह गुणमाला पुष्टि को यानी विशुद्ध पुण्य की एवं धर्मवृक्ष की वृद्धि को पैदा करती है।
'अणुप्पेहाए' का अर्थ : रत्नशोधक अग्नि का दृष्टान्त :
कायोत्सर्ग अनुप्रेक्षा से करना है, नहीं कि केवल प्रवृत्ति रूप से । अनुप्रेक्षा का अर्थ है तत्त्वभूत पदार्थ का चिन्तन । यह भी यहां ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से समुद्भूत एक चित्त धर्म है, चित्त परिणति स्वरूप है, जो कि अनुभूत पदार्थ का अभ्यासविशेष यानी पुनः पुनः विशिष्ट आवृत्ति करने स्वरूप है। वह (१) परम संवेग अर्थात् उत्कृष्ट धर्मरङ्ग का निष्पादक है, इतना ही नहीं बल्कि (२) परम संवेग की दृढता करने वाला है। (३) उत्तरोत्तर विशेष विशेषतर सम्यक् श्रद्धान स्वरूप होता रहता है , यावत् (४) केवलज्ञान की और ले जाने वाला यह अनुप्रेक्षात्मक यानी तत्त्वार्थ-चिन्तनात्मक चित्तधर्म है।
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