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सर्वत्र भावना कार्या । तथा 'पूअणवत्तियाए, - 'पूजनप्रत्ययं पूजननिमित्तं, पूजनं गन्धमाल्यादिभिः समभ्यर्चनम् । तथा 'सक्कारवत्तियाए'-'सत्कारप्रत्ययं' = सत्कारनिमित्तं, प्रवरवस्त्राभरणादिभिरभ्यर्चनं सत्कारः ।
___ (पं०-) 'तत्फले'त्यादि, 'तत्फलं' तस्य वन्दनस्य फलं कर्मक्षयादि, 'मे' = मम, 'कथं नाम' = केन (प्र०... केनापि) प्रकारेण कायोत्सर्गस्यैवावस्थाविशेषलक्षणेन, 'कायोत्सर्गादेव, न त्वन्यतोऽपि व्यापारात्, तदानीं तस्यैव भावात्, 'स्याद्' = भूयाद्, 'इति' = अनया आशंसया, 'अतोऽर्थम्' = वन्दनार्थमिति ।
(ल०-पूजादिकायोत्सर्गः साधुश्रावकार्थ:-) आह- "क एवमाह, साधुः श्रावको वा ? तत्र साधोस्तावत् पूजनसत्कारावनुचितावेव, द्रव्यस्तवत्वात्, तस्य च प्रतिषेधात्, 'तो कसिणसंजमविऊ पुष्फाईयं न इच्छन्ति' इति वचनात् । श्रावकस्तु सम्पादयत्येवैतौ यथाविभवं, तस्य तत्प्रधानत्वात्, तत्र तत्त्वदर्शित्वात्, 'जिणपूयाविभवबुद्धित्ति वचनात् । तत्कोऽनयोर्विषयः ?" इति ।
(साधोः पूजाप्रमोदतोऽनुमतिः)-उच्यते, सामान्येन द्वावपि साधुश्रावको । साधोः स्वकरणमधिकृत्य द्रव्यस्तवप्रतिषेधः, न पुनः सामान्येन, तदनुमतिभावात्; भवति च भगवतां पूजासत्कारावुपलभ्य साधोः प्रमोदः,-'साधु शोभनमिदमेतावज्जन्मफलमविरतानाम्' इति वचनलिङ्गगम्यः । तदनुमतिरियम् ।
साथ किया जाता है। तब यह प्राप्त होता है कि 'अरिहंत चेइयाणं वंदणवत्तियाए करेमि काउस्सग्गं'; ऐसा अन्वय समझना चाहिए।
'वंदणवत्तियाए' आदि का अर्थ:
"वंदणवत्तियाए' यहां 'वंदण' का अर्थ है अभिवादन, नमस्कार अर्थात् प्रशस्त मन-वचन-काया की प्रवृत्ति । 'वत्तियाए' = तत्प्रत्ययम् अर्थात् उसके निमित्त यानी उस प्रशस्त प्रवृत्ति स्वरूप वन्दन के लाभार्थ । तात्पर्य, यहां दूसरी कोई प्रवृत्ति नहीं है, अतः दूसरी किसी प्रवृत्ति से नहीं किन्तु 'कायोत्सर्ग की विशिष्ट अवस्था से ही कैसे मुझे वह फल प्राप्त हो जाए इसके लिए.....' ऐसी भावना से । यही आगे 'पूअणवत्तियाए'.....' इत्यादि पदों में करनी। 'पूअणवत्तियाए' का अर्थ है पूजन के निमित्त । 'पूजन' यह गन्ध, सुगन्धित चन्दन-कस्तूरी आदि का चूर्ण, पुष्पमाला, केशर, इत्यादि से अर्चन करने स्वरूप है। ऐसे पूजन के लाभ के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। 'सक्कारवत्तियाए' अर्थात् सत्कार के निमित्त । प्रवर वस्त्र, अलंकार आदि से पूजन यह 'सत्कार' है।
साधु को द्रव्यरतव की अनुमति:
प्र०-पूजन सत्कार निमित्त कायोत्सर्ग कौन करता है ? साधु या श्रावक ? वहां साधु को तो वह अनुचित है, क्योंकि वे द्रव्यस्तवरूप है और साधु के लिए द्रव्यस्तव का निषेध है। कहा है 'तो कसिणसंजमविऊ पुप्फाईयं न दन्छन्ति' अर्थात संपूर्ण संयम के उपयोग वाले साधु हिंसा के कारण पुष्पादि की भी इच्छा करते नहीं हैं। तब पुष्पादि-द्रव्यस्तव के निमित्त साधु कायोत्सर्ग क्यों करे? अब श्रावक तो पूजा-सत्कार अपने वैभव के अनुसार खर्च करके करता ही है, क्यों कि उसे गृहस्थ जीवन में वही मुख्य है और वह वैसे धनव्यय-साध्य द्रव्यस्तव को अपना सच्चा वैभव मानता है; श्रावक के लिए कहा गया है कि 'जिनपूया विभव-बुद्धी'-अर्थात् श्रावक मिट्टी के धन में नहीं, किन्तु जिनपूजा में धनबुद्धि रखता है, जिनपूजा को ही धनरूप मानता है, कारण, इस पूजासत्कारादि पूजा से महादोषों की निवृत्ति, २ प्रचुर कर्मबन्ध का प्रतिबन्ध, एवं ३ पुण्यानुबंधिपुण्य तथा ४ अनन्य उपकारी
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