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'अरिहंत-चेइयाणं०' (अर्हच्चैत्यानाम् ) (ल०-सहृदयनटवद् भावपूर्णचेष्टा ) एवंभूतैः स्तोत्रैर्वक्ष्यमाणप्रतिज्ञोचितचेतोभावमापाद्य पञ्चाङ्गप्रणिपातपूर्वकं प्रमोदवृद्धिजनकानभिवन्द्याचार्यादीनाऽऽगृहीतभावः सहृदयनटवद् अधिकृतभूमिका संपादनार्थं चेष्टते वन्दनासंपादनाय । स चोत्तिष्टति जिनमुद्रया, पठति चैतत् सूत्रम् अरिहंतचेइयाणं ति ।
(अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्तियाए-पूयणवत्तियाए-सक्कारवत्तियाएसम्माणवत्तियाए-बोहिलाभवत्तियाए-निरुवसग्गवत्तियाए, सद्धाए-मेहाए-धिइए-धारणाए-अणुप्पेहाए वड्ढमाणीए ठामि काउस्सग्गं)
अनेन विधिनाराधयति स महात्मा वन्दनाभूमिकाम्, आराध्य चैनां परंपरया निवृत्तिमेति नियोगतः; इतरथा तु कूटनटनृत्तवदभावितानुष्ठानप्रायं न विदुषामास्थानिबन्धनम् । अतो यतितव्यमत्रैति ।
अरिहंतचेइयाणं० स्तोत्र-पठन के बाद वन्दनादि लाभ हेतु कायोत्सर्ग करना है, इसके लिए प्रतिज्ञा की जायगी । इस प्रतिज्ञा के लिए प्रबल और विशुद्ध मनोभाव आवश्यक है। अतः उस प्रतिज्ञा के उचित तथाविध मनोभाव पूर्वोक्त स्तोत्रों से जाग्रत् करके पंचाङ्गप्रणिपात करना; तत्पश्चात् प्रमोद की वृद्धि पैदा करने वाले आचार्यादि को वन्दना करके हृदय को भावोल्लास से भर दें और वन्दना के सम्पादनार्थ सहृदय नट की तरह अपनी अधिकृत भूमिका यानी भावपूर्ण स्थिर कायोत्सर्ग की भूमिका निर्माण करने के लिए पुरुषार्थ करें । सहृदय नट अपनी भूमिका खेलने के लिए भावशून्य शुष्क हृदय से नहीं, किन्तु भावपूर्ण दृढ हृदय से प्रयत्न करता है।
अब वन्दना-कारक खड़ा हो कर 'जिनमुद्रा' से, अर्थात् खडा रह कर दो पैरों के बीच में आगे चार अंगुल का और पीछे इससे कुछ कम अंगुल का अन्तर रखता है। ऐसी शरीरावस्था से- 'अरिहंत चेइयाणं...' सूत्र पढ़ता है। पूरा सूत्र इस प्रकार है -
'अरिहंत-चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्तियाए - पूयणवत्तियाए - सक्कारवत्तियाए - सम्माणवत्तियाए - बोहिलाभवत्तियाए - निरुवसग्गवत्तियाए, सद्धाए-मेहाए-धिइए-धारणाएअणुप्पेहाए वड्ढमाणीए ठामि काउस्सग्गं ।।
सूत्र का अ आगे बताया जाता है। इस विधि से वह महान भव्यजीव वन्दना की भूमिका का आराधन करता है और उसका आराधन करके भाववन्दना की परंपरा से मुक्ति तक अवश्य पहुँच जाता है। अगर इस प्रकार भावपूर्ण भूमिका न बनाई जाए तब यह अनुष्ठान दिलशून्य झूठे नट के नृत्य की तरह अभावित अर्थात् भावनाशून्य प्रदर्शनमात्र स्वरूप अनुष्टान होगा और वह विद्वानों को आस्था करा सकेगा नहीं। विद्वान लोग अनुष्टान को अभावित देख एक शुष्क नाचक्रिया-सा जान कर उसके प्रति आकर्षित नहीं होंगे । इसलिए प्रस्तुत अनुष्ठान भावितानुष्ठान हो, इसमें पूरा प्रयत्न रखना आवश्यक है।
इस सूत्र का अर्थ यह है 'अरिहंत चेइयाणं' अर्थात् अर्हद् भगवान के चैत्य यानी प्रतिमाओं का अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, भामण्डल, देवदुन्दुभि और छत्र, इन अष्टमहाप्रतिहार्य एवं स्वर्णकमल, समवसरण प्रमुख की पूजा के जो योग्य हैं, वे तीर्थंकर भगवान अर्हत् (अरिहंत) कहलाते हैं, उनके
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