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(ल० - चित्रवस्तुसिद्धौ प्रयोगदृष्टान्ताः-) एकानेकस्वभावत्वं तु वस्तुनो वस्त्वन्तरसम्बन्धा - विर्भूतानेकसंबन्धिरूपत्वेन पितृपुत्रभ्रातृभागिनेयादिविशिष्टैकपुरूषवत्, पूर्वापर-अन्तरितानन्तरित-दूरासन्ननवपुराण-समर्थासमर्थ-देवदत्तकृतचैत्रस्वामिक-लब्धक्रीत-ह (प्र० ... ह) तादिरू पघटवद्वा । सकललोकसिद्धश्चेह पित्रादिव्यवहारः, भिन्नश्चमिथः, तथाप्रतीतेः । तत्तत्त्वनिबन्धनश्च अत एव हेतोः ।
(पं० -) पुनः सामान्येन चित्ररूपवस्तुप्रत्यायनाय प्रयोगमाह - 'एकानेकस्वभावत्वं तु वस्तुनः' इति साध्यनिर्देशः, अत्र हेतुमाह वस्त्वन्तर' मिति, वस्त्वन्तरैः साध्यधर्मिव्यतिरिक्तैः, यः सम्बन्धः तत्स्वभावापेक्षालक्षणः, तेन आविर्भूतानि अनेकानि = नानारूपाणि, सम्बन्धीनि = सम्बन्धवन्ति रूपाणि स्वभावात् यस्य तत्तथातस्य भावस्तत्त्वं तेन । दृष्टान्तमाह पितृपुत्रभ्रातृभागिनेयैः 'आदि' शब्दात् पितृव्यमातुलपितामहमातामहपौत्रदौहित्रादिभिर्जनप्रतीतैः, विशिष्टः = उपलब्धसंबन्धो यः, एको द्रव्यतया, पुरुषः = तथाविधपुमान्, तस्येव, अस्यैव दृढत्वसंपादनार्थं पुनर्दृष्टान्तान्तरमाह पूर्वे' त्यादि, तत्तदपेक्षया पूर्वापरादिपञ्चदशरूपः । 'आदि' शब्दादणुमहदुच्चनीचाद्यनेकरूपश्च यो घटस्तस्येव वा एकानेकस्वभावत्वमिति । हेतुसिद्ध्यर्थमाह 'सकललोकसिद्धश्च' अविगानेन प्रवृत्तेः, 'इह' = जगति, पित्रादिव्यवहारः' तथाविधाभिधानप्रत्ययप्रवृत्तिरूपः । 'भिन्नश्च' = पृथक् (च), 'मिथः' = परस्परम्, अन्यो हि पितृव्यवहारोऽन्यश्च पुत्रादीनाम् । कुत इत्याह 'तथा' = मिथो भिन्नतया, 'प्रतीतेः' = सर्वत्र सर्वदा सर्वैः प्रत्ययात् 'तत्तत्त्वनिबन्धनश्च', तस्य पित्रादितया व्यवहरणीयस्य, तत्त्वं पित्रा - दिरूपत्वं, निबन्धनं यस्य स तथा, चकार उक्तसमुच्चये । एतदपि कुत इत्याह 'अतएव' = तथाप्रतीतेरेव हेतोः । न च सम्यक्प्रतीतिरप्रमाणं सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात्।
इस सिद्धान्त का विपक्ष अगर लिया जाय अर्थात् अर्हत् प्रभु आदि वस्तु एकानेकस्वभाव यदि न माना जाए तो वस्तु में अनेक धर्मों का अस्तित्व एक कल्पना मात्र बन जाएगा; जैसे कि प्रस्तुत में अर्हत्परमात्मा की विविध संपदाएं केवल विषयशून्य बुद्धिप्रतिभास रूप बन जायेंगी। अर्थात् वे संपदाएं कोई सद्-वस्तु नहीं, वास्तविक गुण नहीं, किन्तु काल्पनिक ही यानी आभासमात्र सिद्ध हो जायेंगी। सिद्ध हो, इससे क्या? यही, कि मात्र कल्पना रूप होने से, उन काल्पनिक संपदाओं को ले कर की गई स्तुति केवल मिथ्यास्तुति स्वरूप फलित होगी, और इससे यर्थात् स्तुति साध्य कोई प्रयोजन निष्पन्न होगा नहीं । 'ठीक है ऐसा हो, तो क्या हानि है ?' - वैसा नहीं कह सकते; कारण, यह स्तुति मिथ्या स्तुति या निष्फल स्तुति नहीं है; क्योंकि इन संपदाओं से घटित स्तुति सफल ही प्रयत्न करने वाले महापुरुष श्री गणधर भगवान द्वारा उपन्यस्त की गई होने से सफल है। सर्वत्र सफल ही यत्न करने वाले महापुरुष अर्हत् स्तुति जैसे महान कार्य में निष्फल प्रयत्न कर सकते ही नहीं । इसलिए संपदाओं का उपन्यास अन्यथा अनुपपन्न होने से अर्थात् एक ही परमात्मा के विविध संपदा-गुणस्वरूप वास्तव में अनेक स्वभाव स्वीकृत किये बिना संगत न होने से, वस्तु विचित्रस्वरूप यानी अनेकस्वभाव सिद्ध होती है।
विचित्र संपदाओं से वस्तु की विचित्र स्वरूपता सिद्ध की गई, अब सामान्य रूप से विचित्र वस्तु की प्रतीति कराने के लिए अनुमान प्रयोग दिखलाते हैं, - वस्तु अनेकस्वभाव होती है, क्यों कि इसमें अन्य वस्तुओं के संबंध से व्यक्त हुए अनेक संबन्धित रूप यानी संबंधवाले धर्म हैं । इस अनुमान प्रयोग में साध्य है 'वस्तु की अनेक स्वभावता', और इस साध्य को सिद्ध करने वाला हेतु है 'अन्य वस्तुओं के संबन्ध से आविर्भूत अनेक सम्बन्धितरूप। यहां 'अन्य वस्तु' कर के, साध्य-अनेक स्वभावता के धर्मी रूप जो वस्तु, इससे भिन्न वस्तुओं का ग्रहण होगा; उदाहरणार्थ पुरुष में अनेकस्वभावता सिद्ध करनी है यह साध्य है, तो 'अन्य वस्तु' कर के पुत्रादि
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