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(ल०-) अनेककार्यकरणैकस्वभावत्वकल्पना तु शब्दान्तरेणैतदभ्युपगमानुपातिन्येव ।
(पं० -) आशङ्कान्तरपरिहारायाह 'अनेककार्यकारणैकस्वभावत्वकल्पना तु' = एकोऽपि वस्तु स्वभावो-ऽनेककार्यकरणस्वभावः, ततो न केषाञ्चिदहेतुकत्वमित्येषा पुनः कल्पना, 'शब्दान्तरेण' = अस्मदभ्युपगमाद् ‘एकमनेकस्वभावमि'त्यस्माच्छब्दान्तरेण 'एकमनेककार्यकरणस्वभावमे'वं लक्षणेन, 'एतदभ्युपगमानुपातिन्येव' = एक मने क स्वभावमित्यस्मन्मतानुसारिण्येव । न ह्ये क स्मात् कथञ्चित्स्वभावभेदमन्तरेणानेकफलोदय इति प्राक् चर्चितमेव ।
(ल० - ) निरू पितमेतदन्यत्र, - (१) यतः स्वभावतो जातमेकं नान्यत्ततो भवेत् । कृत्स्न प्रतीत्य तं भूतिभावत्वात् तत्स्वरू पवत् ।। (२) अन्यच्चेवंविधं चेति यदि स्यात्कि विरुध्यते । तत्स्वभावस्य कात्स्येन हेतुत्वं प्रथमं प्रति ॥
इत्यादिना ग्रन्थेनेति नेह प्रतन्यते । तदेवं निरुपचरितयथोदितसंपत्सिद्धौ सर्वसिद्धिरिति व्याख्यातं प्रणिपातदण्डकसूत्रम् ।
(पं० -) 'निरु पितम्', 'एतद्' = अनन्तरोक्तम्, 'अन्यत्र' = अनेकान्तजयपताकायाम् । यथा निरूपितं तथैवाह 'यत' इत्यादिश्लोकद्वयं, 'यतो' = यस्मात्, ‘स्वभावतो' वस्तुगतरूपरसादिरूपादुपादानभूतात्, 'जातम्' = उत्पन्नम्, 'एकं' कार्यं वस्त्ररागादि, 'न' 'अन्यत्' = द्वितीयं स्वग्राहकप्रत्यक्षादिकं सहकारिभावेन, 'ततो' वस्तुस्वभावात्, 'भवेत्' = जायेत । हेतुमाह ‘कृत्स्नं' = समस्तं, 'प्रतीत्य' = आश्रित्य, 'तं' = वस्तुस्वभावं, 'भूतिभावत्वाद्' = भवनस्वभावत्वात् । आद्यस्यैव कार्यस्य दृष्टान्तमाह 'तत्स्वरू पवद्' = यथा स्वभावस्य हेतुभूतस्याधिकृतककार्यगतस्वभावस्य वा स्वरूपं स्वभावकात्याश्रयेणैव भवति, तथा प्रथममपि कार्यमिति । पराभिप्रायमाशङ्क्याह 'अन्यच्च' = द्वितीयं च, कार्यमिति गम्येते, ‘एवंविधं च' = तद्धे तुजन्यं च, 'इति' = एतद्,
कार्यों को पैदा करने के स्वभाव वाली है, और यह मान्यता तो अनेक स्वभाव वाली एक वस्तु के हमारे मप्त का ही अनुसरण कर रही है। मत कहिये कि 'हम तो अनेक स्वभाव नहीं किन्तु एक ही स्वभाव अनेक कार्य सामर्थ्य वाला मान रहे हैं इतना फर्क है;' क्यों कि अनेक कार्य सामर्थ्य भिन्न भिन्न अनेक स्वभाव रूप ही है। ऐसा अगर न हो तब तो वैसे एक ही अनेक कार्य सामर्थ्य से कार्यसांकर्य की आपत्ति खड़ी होगी; अर्थात् उदाहरणार्थ 'पिता' व्यवहार के स्थान में 'पुत्र' व्यवहार भी क्यों न हो? अनेक कार्य करने का सामर्थ्य तो वहां उपयुक्त हो रहा है। इसलिए मानना होगा कि सामर्थ्य यानी स्वभाव एक नहीं किन्तु भिन्न भिन्न है जो कि भिन्न भिन्न अनेक कार्यों को जन्म देते हैं। कथंचित् भिन्न भिन्न स्वभाव यानी स्वभावभेद के सिवा एक से अनेक कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। इसकी चर्चा पहले कर चके हैं।
अनेकान्तजयपताका के प्रस्तुत-साधक श्लोक :
पूर्वोक्त वस्तु की अन्यत्र 'अनेकान्तजयपताका' ग्रन्थ में विचारणा की गई है। किस प्रकार यह बतलाते हैं, - तन्तु प्रमुख वस्तु के रूपरसादि स्वरूप स्वभाव उपादानभूत है उससे उत्पन्न होने वाले वस्त्र के रूप आदि कार्य के प्रति; और उस वस्त्रवर्णादि कार्य की अपेक्षा दूसरा कोई कार्य है उस तन्तुरूप का ग्राहक प्रत्यक्ष; उसके प्रति वह तन्तु रूप सहकारी भाव से कारण है लेकिन उसी स्वभाव से कारण नहीं है। तात्पर्य, तन्तुवर्ण से
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