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'यदिस्यात्' = यदि भवेत, किं विरुध्यते ? न किञ्चित्, तदपि भवत्विति भावः । अत्रोत्तरं 'तत्स्वभावस्य' = वस्तुगतरूपरसादिरूपस्य, 'कात्स्न्र्येन' = सर्वात्मना, हेतुत्वं' = निमित्तत्वं, 'प्रथमं प्रति' = आदिकार्यमाश्रित्य, न विरुध्यते । इदमुक्तं भवति - सर्वात्मनोपयुक्तत्वादाद्यकार्य एव, कुतस्ततः कार्यान्तरसंभवः ? तत्संभवे च न प्रथमकार्ये तस्य कात्र्योपयोगः, इति बलादनेकरूपवस्तुसिद्धिरिति । 'आदि' शब्दादन्यकारिकाग्रन्थो दृश्यः ।
स्तोत्र - तत्पठनस्वरूपम्। (ल० - स्तोत्रतत्पठनयोः स्वरूपम् - ) तदेतदसौ साधुः श्रावको वा यथोदितं पठन् पञ्चाङ्गप्रणिपातं करोति, भूयश्च पादपुञ्छनादिनिषण्णो यथाभव्यं (प्र० ... यथाभावं) स्थानवार्थालम्बन - गतचित्तः, सर्वसाराणि यथाभूतानि असाधारणगुणसङ्गतानि भगवतां दुष्टालङ्कारविरहेण प्रकृष्टशब्दानि, भाववृद्धये परयोगव्याघातवर्जनेन परिशुद्धामापादयन् योगवृद्धिम्, अन्येषां सद्विधानतः सर्वज्ञप्रणीतप्रवचनोन्नतिकराणि, भावसारं परिशुद्धगम्भीरेण ध्वनिना सुनिभृताङ्गः सम्यगनभिभवन् वस्त्रवर्ण भी उत्पन्न होता है, एवं तन्तुवर्ण का प्रत्यक्ष भी उत्पन्न होता है; इन दोनों कार्य के प्रति तन्तुवर्ण उपादानसहकारीभाव से कारण है लेकिन वह जिस स्वभाव से वस्त्रवर्ण के प्रति कारण है उसी स्वभाव से स्वप्रत्यक्ष के प्रति नहीं। कारण यह है कि उस एक वस्तुस्वभाव के कोई विभाग, कोई अंश नहीं हैं कि जिससे अमुक अंश को लेकर पहला कार्य हो और दूसरे अंश से दूसरा कार्य उत्पन्न हो; वह कारणवस्तु का स्वभाव एक अखण्ड है, और उस समस्त स्वभाव का आश्रय करके पहला कार्य उत्पन्न होता है; जैसे कि हेतुभूत स्वभाव का या कार्यवस्तुगत स्वभाव का स्वरूप उस समस्त स्वभाव को अवलम्बन कर पैदा होता है। यहां प्र होगा,
प्र० - उस तन्तुवर्ण-प्रत्यक्षादि द्वितीय कार्य का स्वभाव ही ऐसा अगर मान ले कि वह उसी कारण - भूत तन्तुवर्णादिस्वभाव से जन्य है तब क्या विरोध है? कोई बाधा दीखती नहीं है तो कारणगत एक ही स्वभाव से दूसरा भी कार्य हो।
उ० - लेकिन सोचनीय यह है कि तब तो तन्तुगत रूपरसादि से एक स्वभाव में रही हुई कारणता प्रथम कार्य वस्त्रगत रूपरसादि के हिसाब से सर्वात्मना कहां उपयुक्त हुई ? अर्थात् सर्वात्मना उपयुक्त होना बाधित है। तात्पर्य यह प्राप्त होता है कि कारण-स्वभाव प्रथम कार्य में ही सर्वात्मना सर्वांशता उपयुक्त हो जाने से अब इससे दूसरा कार्य हो सकना संभवित नहीं; और अगर संभवित है तब कहना होगा कि प्रथम कार्य में उसका सर्वांशतः 'उपयोग नहीं हुआ। फलतः बलात् प्राप्त होगा कि वह तन्तुगत रूपादि अनेक कार्य-जनन स्वभाव वाला है, अर्थात् वस्तु अनेक रूप है, अनेक धर्मात्मक है।
इसी प्रकार अनेकान्तजयपताका' ग्रन्थ के अन्य श्लोक भी देखने योग्य हैं।
वस्तु अनेकरूप होने से यह सिद्ध होता है कि अरिहंत परमात्रा में भी पूर्वोक्त अनेक गुणसंपत् अनौपचारिक है, वास्तविक है। इस सिद्धि से सर्व सिद्ध हुआ। यह प्रणिपातदण्डक-सूत्र का विवेचन हुआ।
स्तोत्र कैसे हो और किस रीति से पढ़ने चाहिए ? :प्रणिपातदण्डक सूत्र की संपदाएँ अर्हद् भगवान की निरुपचरित यानी अ. . पारार्थिक स्तुति का साधन हैं, इसलिए इस सूत्र को साधु या श्रावक पूर्वोक्त रीति से पढ़ता है और पढ़कर पंचाङ्ग नमस्कार करता है। इस तरह करने के बाद पुनः पादपुंछन नामक छोटे आसन आदि पर बैठ कर यथायोग्य स्थान-वर्ण-अर्थ - आलम्बन में चित्त रखकर योगमुद्रादि आसन, सूत्र-स्तोत्रों के अक्षर, उनसे कथित पदार्थ, एवं प्रतिमादि आलम्बनों
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