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एकानेकस्वभाव-वस्तु-सिद्धिः
( ल० - चित्रसंपद्द्वाराऽनेकान्तसिद्धिः - ) एकानेकस्वभाववस्तुप्रतिबद्धश्चायं प्रपञ्च सम्यगालोचनीयम्, अन्यथा कल्पनामात्रमेता इति फलाभावः ।
(पं०) इयं च चित्रा संपन्न स्याद्वादमन्तरेण संगतिमङ्गतीति तत्सिद्ध्यर्थमाह 'एकानेकस्वभाववस्तु - प्रतिबद्धश्च' द्रव्यपर्यायस्वभावार्हल्लक्षणवस्तुनान्तरीयकः पुनः, 'अयम्' अनन्तरोक्तः, 'प्रपञ्चः ' चित्रसंपदुपन्यासरूप:, ‘इति' = एतत्, 'सम्यगालोचनीयम्' = अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यथेदं वस्तु सिध्यति तथा विमर्शनीयम् । विपक्षे बाधामाह 'अन्यथा' = एकानेकस्वभावाभावेऽर्हतां, 'कल्पनामात्रं ' = कल्पना एव केवला निर्विषयबुद्धिप्रतिभासरूपा, 'एता: ' चित्रा: सम्पदः, ततः किमत आह 'इति' = अतः कल्पनामात्रत्वात्, फलाभावः = मिथ्यास्तवत्वेन सम्यक्स्तवसाध्यार्थाभावः; न चैवं, सफलारम्भिमहापुरुषप्रणीतत्वादासाम् इत्येतदुपन्यासान्यथानुपपत्त्यैव चित्ररूपवस्तुसिद्धिरिति ।
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(४) अर्हत-संपदा गुणों के प्रणिधान से अशुभकर्म - ह्रास एवं शुभकर्मोपार्जन होता है ।
(५) संपदा गुणों का प्रीति- बहुमान युक्त प्रणिधान प्रणिधाता में उन गुणों को उत्पन्न करने में समर्थ है।
एकानेकस्वभाव वस्तु की सिद्धि
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विविध संपदाओं से अनेकान्तसिद्धि:
हेतुसंपदा, उपयोगसंपदा.... इत्यादि ये विविध संपदा स्याद्वाद, अपर नाम अनेकान्तवाद के स्वीकार बिना सङ्गत नहीं हो सकती। एकान्तवाद में तो वस्तु एकस्वभाव ही होने से, प्रभु यदि स्तुतिपात्र हैं, तो स्तुतिपात्र ही हैं, वापिस हेतुरूप कैसे ? हेतुरूप है तो हेतुरूप ही है, उपयोग रूप कैसे ? लेकिन वस्तुस्थिति से प्रभु स्तुतिपात्र भी है, आदिकरादि हेतुस्वरूप भी है, और लोकोत्तमादि उपयोग स्वरूप भी है। इससे सूचित होता है कि वस्तु एकानेकस्वभाव है-द्रव्यरूप से एकस्वभाव और पर्यायरूप से अनेकस्वभाव है । दृष्टान्त के लिए अलंकार अपने उपादानद्रव्य सुवर्णरूप से एकस्वभाव है, और वही अपने पर्याय कङ्कण, पीला, भारी, मेंघा.... इत्यादि रूप से अनेकस्वभाव हैं।
वस्तु
वस्तुमात्र द्रव्यपर्याय उभयस्वरूप होने से एकानेकस्वभाव होना सहज है। भगवान अरिहंत भी एक है तो वह एकानेकस्वभाव यानी द्रव्यस्वभाव, पर्यायस्वभाव, उभयरूप है, अत: एकानेकस्वभाव होने की वजह पूर्वोक्त विविध संपदाएं उसके साथ अवश्य संबद्ध हैं; विचित्र संपदाओं का उपन्यास एकानेकस्वभाव अर्हद्-वस्तु के सिवा नहीं हो सकता है।
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वस्तु एकानेकस्वभाव के बिना उसमें विचित्र धर्म उत्पन्न नहीं हो सकते यह नियम सम्यग् रूप से आलोचनीय है, अर्थात् अन्वय-व्यतिरेक से जैसे सिद्ध होता है इस प्रकार विचारणीय है । अन्वयसिद्ध इस प्रकार कि उदाहरणार्थ, दीपक एक होता हुआ ही दाहकस्वभाव, प्रकाशस्वभाव, इत्यादि अनेक स्वभाव है तभी उस अकेलेपन में ही दाहकत्व, प्रकाशकत्व वगैरे अनेक धर्म संगत होते हैं। व्यतिरेकसिद्ध इस प्रकार कि जो एक व्यक्ति नहीं, जैसे कि रत्न और अग्नि आदि एक नहीं, वहां अकेले रत्न या अग्नि आदि में दाहकत्व, प्रकाशकत्वादि अनेक धर्म नहीं । अन्वय- व्यतिरेक से यह निश्चित होता है कि एक ही वस्तु एकानेकस्वभाव होती है।
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