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(ल० - अभ्युपगमविरोध:-) न दर्शनादेवाविरोधः इति, अभ्युपगमविचारोपपत्तेः । न च सोऽप्येवं न विरुध्यत एव, तदेकस्वभावत्वेन विरोधात् ।
(पं० -) अथ स्यात् 'न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम; दृश्यते हि एकस्मिन्नविभागवति सहकारिणि स्वोपा - दानभेदादनेकवासनाप्रवृत्तिः' एतत्परिहारायाह 'न' = नैव, 'दर्शनादेव' प्रत्यक्षज्ञानरूपात् केवलाद् 'अविरोधः' प्रस्तुतवासनाभेदस्य 'इति' ; कुत इत्याह 'अभ्युपगमविचारोपपत्तेः', अभ्युपगमो हि विचारयितुमुपपन्नो, न दर्शनम् । यद्येवं ततः किमित्याह 'न च' = नैव, 'सोऽपि' अभ्युपगमः 'अपिशब्दाद् दर्शनं च, 'एवम्' = एकस्यानेकसहकारित्वाभ्युपगमे न विरुध्यत एव, किन्तु विरुध्यत एव । कथमित्याह 'तदेकस्वभावत्वेन' = व्यवहियमाणवस्तुनो निरंशैकस्वभावत्वेन, 'विरोधाद्' = निराकरणाद्, अनेकसहकारित्वाभ्युपगमस्य तस्यानेकस्वभावाक्षेपकत्वात (प्र०. भावापेक्षित्वात)।
'निमित्तभेद के बिना व्यवहार भेद अशक्य' का जैनमत :
केवल उपादानों की विविधता से वासना-वैविध्य का बौद्धों का यह समर्थन युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि अनेक उपादानों के अपने अपने कार्य के प्रति एक ही स्वभाव वाली वस्तु सहकारी कारण नहीं बन सकती; जैसे कि उन 'पुत्र' 'पिता' आदि अनेक व्यवहार करने वालों के लिए एक ही स्वभाव वाला देवदत्त सहकारी कारण बन सकता नहीं है। आप तो मानते हैं कि 'वे देवदत्त के पिता पुत्रादि उपादान रूप से भिन्न भिन्न हैं इसलिए एक ही देवदत्त रूप सहकारी पाने पर भी वैसी वैसी वासना वाले बनते हैं किन्तु स्थिति ऐसी है कि उन भिन्न भिन्न वासनाओं के लिए आवश्यक है वैसे वैसे अनेकस्वभाव, तो उन स्वभावों से रहित देवदत्तादि एक वस्तु उन अनेक वासनाओं के प्रति सहकारी कारण कैसे हो सकती है ? होना अनुपपन्न है। ___ बौद्धों के स्वाभ्युपगम में विरोध :
इस अनुपपत्ति पर बौद्ध अगर कहें कि "इसमें अनुपपत्ति क्या है ? प्रत्यक्ष-दृष्ट वस्तु में अनुपपन्न जैसा कुछ नहीं है। देखते हैं कि एक ही निरंश अखण्ड सहकारी कारण उपस्थित होने पर अनेक व्यवहर्ता पुरुष स्वरूप उपादानों से अनेक अपनी अपनी वासनाएँ उत्पन्न होती हैं। तब उत्पन्न होने में अनुपपत्ति यानी विरोध कहां रहा?" तो इस बौद्ध कथन के निराकरणार्थ कहते हैं कि केवल प्रत्यक्ष के बल पर एक सहकारीप्रयुक्त इन वासनाओं का वैविध्य होने में अविरोध प्रस्तुत नहीं किया जा सकता कारण यह है कि यहां प्रत्यक्ष दर्शन कैसा होता है, कैसा नहीं, इसके परामर्श का प्रसङ्ग नहीं है, किन्तु अभ्युपगम (सिद्धान्त स्वीकार) किस प्रकार का सङ्गत हो सकता है यह उपक्रान्त है । कहिए 'हो इससे क्या ?,' उत्तर यह है कि दर्शन ही नहीं, बल्कि अभ्युपगम भी, एक ही वस्तु को अनेक कार्यों में सहकारी कारण मान लेने पर, सङ्गत नहीं हो सकता है, किन्तु विरुद्ध ही है; क्योंकि जिस देवदत्तादि वस्तु का 'पुत्र' 'पिता' इत्यादि रूप से व्यवहार करना चाहते हैं वह आपके मत से निरंश एकस्वभाव होने से ही इसमें अनेक व्यवहारों के प्रति सहकारीभाव प्रतिषिद्ध हो जाता है। कारण यह है कि अनेकों के प्रति सहकारीभाव का स्वीकार ही उसमें अनेक स्वभावों का अवश्यभाव स्थापित करता है। एक ही वस्तु अलबत्ता अनेक कार्यों के प्रति सहकारी कारण हो सकती है, लेकिन जिस स्वभाव से एक कार्य के प्रति सहकारी कारण होगी, उसी स्वभाव से अन्य के प्रति नहीं, अन्यथा दोनों कार्य समान हो जायेंगे। फलतः एक से अनेक कार्यों का निर्माण जो देख रहे हैं वह उसमें अनेक स्वभाव होने पर ही उपपन्न है, यह निर्विवाद स्वीकृत करना समुचित है।
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