________________
( ल० कूपपतितदृष्टान्तोऽसन्:- ) कूपपतितोदाहरणमप्युदाहरणमात्रं, न्यायानुपपत्तेः तदुद्भूतादेरपि तथादर्शनाभावात् (प्र० तथा दर्शनभावात् ), तत्र चोत्तारणे दोषसंभवात् तथा कर्त्तुमशक्यत्वात्, प्रयासनैष्फल्यात् ।
(पं० -) तदुद्भूतेत्यादि । 'तदुद्भूतादेरपि', तस्मिन् = कूपे, उद्भूतो = मत्स्यादिः, 'आदि' शब्दादतद्गतोऽपि प्रयोजनवशात्तत्रैव बद्धस्थितिः, तस्यापि, 'तथादर्शनाभावात् ' = पतनकारणमविचाय्यैवोत्तारणोपाय (प्र० .... तारणाय) मार्गणस्यानवलोकनाद्, एवं च तथादर्शनादितिहेतोः प्रागुक्तस्य प्रतिज्ञैकदेशा - सिद्धतेति । अथ तदुद्भूतादिरप्युत्तारयिष्यते, ततो न हेतोः प्रतिज्ञैकदेशासिद्धता, इत्याह 'तत्र च ' = तदुद्भू - तादेरपि उत्तारणे, 'दोषसम्भवात् ' = मरणाद्यनर्थसम्भवात्, 'तथे 'ति हेत्वन्तरसमुच्चये, 'कर्त्तुम्' उत्तारणस्य तदुद्भूतादेः, 'अशक्यत्वात्' हेतुमाह 'प्रयासनैष्फल्यात्', प्रयासस्य = प्रयत्नस्य, नैष्फल्यात् = उत्तार णीयोत्तारलक्षणफलाभावात् ।
-
-
.....
विरुद्ध वचनों में दृष्टेष्टाविरोध ही कसौटी :- अब आप अगर कहें कि 'जो उनमें विशिष्ट शास्त्र हो उसीके आधार पर प्रवृत्ति करनी,' तब प्र है कि विशिष्ट किसको कहना ? कोई विशेष उपलब्ध हो तो उस विशेषवाला यह विशिष्ट कहा जाए, और दृष्टेष्ट- अविरोध के अलावा अन्य कोई विशेष उपलब्ध है नहीं तथा विचार किये बिना यह निर्णीत नहीं हो सकता । अत: विचार आवश्यक है कि कौन शास्त्र दृष्टेष्ट - अविरुद्ध है । - विचार से क्या ? समस्त वचनों से तो प्रवृत्ति करनी अशक्य है; इसलिए किसी एक वचन के आधार पर प्रवृत्ति कर सकते हैं न ?
प्र०
1
उ० – नहीं, एक वचन कौन लिया जाएगा ? कारण कि एक से प्रतिपादित की गई जो हेयत्याग उपादेयस्वीकार रूप प्रवृत्ति, वह तो अपर वचन से बाधित है, प्रतिषिद्ध है। फिर भी उस बाधकवचन की उपेक्षा कर ऐसी बाधित प्रवृत्ति की जाए, तब तो यह प्रवर्तन स्वेच्छा का ही विषय हुआ, श्रद्धामात्र से मान्य हुआ, किन्तु किसी प्रमाणभूत आगमवचन से समुद्भूत नहीं कहा जा सकता । अर्थात् यहां अपनी रुचि प्रवर्तक हुई, कोई वचन नहीं । यह भी इसलिए कि और वचन से पूर्वोक्त सभी वचन का खण्डन हो गया है।
Jain Education International
प्र० - आगमों में परस्पर विरोध हो, फिर भी आगम पर भक्ति बहुमान रख कर प्रवृत्ति करनेवाले को किसी भी आगम से उक्त इष्ट फल का लाभ हो जाए इसमें क्या हर्ज है ? आगम- बहुमान और प्रवृत्ति का ही महत्त्व है, विचार का नहीं ।
उ० - यहां पहले सचमुच भक्ति- बहुमान क्या चीज़ है यह प्रतिवस्तु से यानी अ - बहुमान (भक्तिशून्यता) एक उदाहरण से देखिए; इससे पता चलेगा कि विचार का कितना महत्त्व है । दृष्टान्त यह कि कोई आदमी वचन या प्रवृत्ति के द्वारा निर्दोष ब्राह्मण या निर्दोष भागवत, संन्यासी आदि का अनादर करता हो, अथवा दुष्ट (दोषसंपन्न) का आदर- बहुमान करता हो, तो क्या वह ब्राह्मणभक्त या संन्यासी भक्त कहलाएगा ? नहीं, वह तो व्यक्तिरागी हुआ । इसलिए ब्राह्मणादिभक्त तो वही कहा जाता है जो दुष्ट ब्राह्मणादि को न माने, ओर निर्दोष की मान्यता, भक्ति-बहुमानादि करे। इस प्रकार प्रस्तुत में भी आगमभक्त वही कहलाएगा जो निर्दोष ही आगम का स्वीकार एवं बहुमान करे, जिस किसी आगमका नहीं । कहिए, ठीक है, तब निर्दोष आगम से बहुमान रख प्रवृत्ति की जाए, लेकिन इसलिए जैसे वहां भी 'अमुक ब्राह्मणादि दुष्ट है या निर्दोष,' यह बिना तलाश ज्ञात नहीं होगा, इस प्रकार यहां भी जिस आगम के अनुसार मान्यता, बहुमान एवं प्रवृत्ति करनी है उसकी निर्दोषता का निर्णय
२३५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org