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(ल० - विचारणं युक्तम्:-) न चोपायमार्गणमपि न विचाररूपं तदिहापि विचारोऽना - श्रयणीय एव, दैवायत्तं च तद्, अतीन्द्रियं च दैवमिति युक्तेरविषयः, शकुनाद्यागमयुक्तिविषयतायां तु समान एव प्रसङ्ग इतरत्रापीति ।
(पं० -) अभ्युच्चयमाह 'न च' = नैव, 'उपायमार्गणमपि' = उत्तारणोपायगवेषणमपि परोपन्यस्तं 'न विचाररू पम्' किन्तु विचाररूपमेव । यदि नामैवं ततः किम् ? इत्याह 'तत्' = तस्माद्, ‘इहापि' = उत्तारणोपाये, आस्तां तावत्प्रकृतवचनार्थे, 'विचारो' = विमर्शः, 'अनाश्रयणीय एव' = न विधेय एव परमते। अथातीन्द्रियत्वाद् युक्तेरविषयो वचनार्थः, इदं च कूपपतितोत्तारणं तथाविधं न भविष्यतीत्याशङ्क्याह 'दैवायत्तं च' = काधीनं (च), 'तद्' = उत्तारणं, ततः किम् ? इत्याह 'अतीन्द्रियं च' = इन्द्रियविषयातीतं च तदुत्तारणहेतुः, 'दैव' = कर्म, 'इति = अस्माद्धेतोः, ‘युक्तेः' विचारणस्य, अविषयो', भवन्मतेन वचनमात्र .. स्यैव विषयत्वात् कथं तत्र सम्यगविज्ञाते तदायत्तायोत्तारणाय प्रवृत्तिरिति पुनरप्यभिप्रायान्तरमाशङ्क्याह 'शकुनाद्यागमयुक्तिविषयतायां तु', शकुनाद्यागमाश्च आदिशब्दाद् ज्योतिष्काद्यागमग्रहो; युक्तिश्च विचारः, तद्विषयतायां तु दैवस्यानुकूलेतररूपस्य 'समान एव प्रसङ्गः', 'इतरत्रापि' परमब्रह्मादावतीन्द्रिये वचनार्थे । तदपि युक्त्यागमाभ्यां विचारयितुं प्रयुज्यत इत्ययुक्तमुक्तं प्राक् 'सादिपृथक्त्वममीषामनादिचेत्यादि । 'इतिः' प्रक्रमसमाप्त्यर्थः ।
विचारणा किये बिना कैसे होगा? यह लक्ष में रहे कि यदि विचारणाका आश्रय करना आपके लिए तो युक्तिघटित ही हो तब युक्ति का अबलम्बन करना आपको दुर्वार है; लेकिन आप युक्ति का सहारा कैसे ले सकते हैं? क्यों कि आपको तो युक्ति प्रमाणभूत नहीं है, सिर्फ आगमप्रमाण ही आपके मत में मान्य है। इस प्रकार ब्राह्मणादि न्याय से यह सोचनीय है कि क्या जिस किसी आगम मात्र से प्रवृत्ति करनी उचित है?
कूपपतित का दृष्टान्त भी दृष्टान्त मात्र है, किन्तु वह निर्विचार आगमस्वीकार के मत का समर्थक नहीं । कारण, उसमें युक्तियुक्तता उपपन्न नहीं हो सकती। यह इस प्रकार;- आप तो कहते हैं कि "बिना कुछ ऐसा सोच-विचार कि 'कैसे पड़ा, कब पड़ा,....,' कूए में गिरे हुए को बाहर निकालने की कोशिश की जाती है ऐसा देखते हैं," लेकिन कूए में उत्पन्न मत्स्यादि को एवं प्रयोजनवश उसमें बंधे हुए या वहां जा कर अवस्थान किये गए प्राणी को कूपपतित समझ कर निकालने की कोशिश की जाती हो ऐसा देखने में आता नहीं है। अब देखिए कि ऐसा कुए में चाहे गिरा हुआ या रहा हुआ हो, दोनों की समान है; अगर पतन का कारण सोचने का कुछ है ही नहीं तो गिरे हुए की तरह रहे हुए को भी बाहर निकालने का उपाय खोजने का क्यों न दिखाई पड़े? लेकिन दिखता नहीं है, इस लिए पहले जो आपने 'तथादर्शनात्' अर्थात् कुएँ में पड़ा हुआ देखते हैं इस वास्ते बिना बिचार बाहर निकालने का उपाय देखना' ऐसी प्रतिज्ञा की, इसमें एकदेश-असिद्धि का दूषण उपस्थित हुआ, अर्थात् अमुक कूपपतितों में उद्धार की प्रतिज्ञा सङ्गत नहीं होती है। यह इस प्रकार कि कूएँ के भीतर होते हुए भी मत्स्यादि को निकाल देने के उपाय की जांच की जाय ऐसा देखने में आता नहीं है।
अगर कहें "कुएँ मे उत्पन्न या स्थितिबद्ध आदि का भी उद्धार किया जाएगा, फलतः 'तथादर्शनात्' हेतु की प्रतिज्ञा के एक भाग में असिद्धि नहीं होगी," लेकिन यह देखिए कि उन मत्स्यादि का उद्धार करने पर अर्थात् उनको बाहर निकालने पर तो उनकी मृत्यु आदि अनर्थ उपस्थित होंगे! और भी असिद्धि-प्रयोजक हेतु यह है कि ऐसा उद्धरण करने का शक्य भी नहीं है। कारण, कुँए के भीतर रहे हुए सभी प्राणियों के उद्धरण का प्रयत्न करने पर भी उसके उद्धार स्वरूप फल नहीं आता है; प्रयत्न निष्फल होता है।
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