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(ल० - अनेकब्राह्मणैकरू पकदान-रत्नावलीदर्शन-दृष्टान्तौ - ) आह, एवं ह्येकक्रिययाने - कसन्माननं बहुब्राह्मणैकरू पकदानतुल्यं, तत्कथं नाल्पत्वम् ? उच्यते, क्रियाभेदभावात् । सा हि रत्नावलीदर्शनक्रियेव एकरत्नदर्शनक्रियातो भिद्यते, हेतुफलभेदात्, - सर्वार्हदालम्बनेयमिति हेतुभेदः, प्रमोदातिशयजनिके (प्र..... जनके) ति च फलभेदः, (तत्) कथमित्थमल्पत्वम् ?
बहु ब्राह्मणों को एक रू पये का दान एवं रत्नावली का दर्शन :
प्र० - ठीक है लेकिन एक ही नमस्कार - क्रिया के रूप में अनेकों को सन्मान का प्रदान करना यह तो एक ही रूपये का दान अनेक ब्राह्मणों को करने जैसा हुआ! इसमें तो एक ही रूपये की तरह एक ही नमस्कारसन्मान अनेकों में बांटा जाएगा तब तो प्रत्येक को अल्प ही मिलने का क्यों नहीं ?
उ० – दोनों क्रियाओं में फर्क है; यह इसलिए कि नमस्कार की क्रिया रत्नदर्शन की क्रिया के समान है। वहां एक रत्न के दर्शन की अपेक्षा रत्नमाला-अनेकारत्नों की बनी हुई रत्नमाला के दर्शन की क्रिया भिन्न होती है; क्यों कि उन दोनों क्रियाओं के कारण और फल भिन्न होते हैं । यह इस प्रकार, - दर्शन में कारणभूत है विषय, और विषय भिन्न भिन्न है; एक में एक ही रत्न विषय है, जब कि दूसरी क्रिया में अनेक रत्न विषय हैं। एवं फल-भेद भी है; एक रत्न के दर्शन से जो आनन्द होता है उसकी अपेक्षा रत्नमाला के दर्शन से अधिक आनन्द होता है। ठीक इसी प्रकार नमस्कार - क्रिया में, कारणभेद यह है कि एक के प्रति नमस्कार में एक ही का आलम्बन किया, जब कि अनेक अरिहंत को नमस्कार करने में समस्त अर्हत् का आलम्बन लिया गया। इस प्रकार फलभेद भी है; - एक अर्हत्परमात्मा के नमस्कार की अपेक्षा समस्त त्रिकालवर्ती निखिल अर्हत्परमात्मा के प्रति नमस्कार करने में फलस्वरूप अतिशय आनन्द उत्पन्न होता है। फिर अल्पता कैसे आई ?
नमस्कार से अर्हत् को कुछ उपकार नहीं :
अनेक ब्राह्मणों को एक रुपये के दान का उदाहरण तो यहां पर उपन्यास - योग्य ही नहीं है; क्योंकि रूपये से तो ब्राह्मणों को उपकार होता है, और इसीलिए तो वे आपस में बांट लेते हैं। किन्तु इस प्रकार अरहंत प्रभुओं को नमस्कर्ता के नमस्कार से कुछ भी उपकार नहीं होता है; वे तो अन्तिम कृतार्थता पर पहुंच चुके हैं, अतः उन्हें अब कुछ भी प्राप्तव्य अप्राप्त नहीं है, तो क्या उपकार लेना? इसलिए नमस्कार का सन्मान बांट लेने की और इससे प्रत्येक को अल्प मिलने की कोई वस्तु ही नहीं है।
चिन्तामणि के दृष्टान्त से नमस्कार के फल में भगवान कारण :
प्र० - जब भगवान को नमस्कार से कोई उपकार नहीं, तब नमस्कार का फल भगवान से प्राप्त हुआ यह कैसे?
उ० - नमस्कार यह एक प्रकार की शुभ चित्तवृत्ति है, और वह भगवान को आलम्बन करती है, भगवद्विषयक है; इसलिए नमस्कार का फल भगवान से प्राप्त हुआ यह कह सकते हैं।
प्र० - ऐसा क्यों ? फल तो नमस्कार स्वरूप चित्तवृत्ति से हुआ, भगवान से कैसे?
उ० - चित्तवृत्ति से हुआ तो सही लेकिन कैसी चित्तवृत्ति से ? जिस - किसी नहीं किन्तु भगवान को आलम्बन रख कर की गई अर्थात् भगवद्विषयक चित्तवृत्ति से फल हुआ। इसलिए कहिए कि फल के प्रति तो
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