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अर्थात् मोक्ष पाने वाला जीव तीनों काल की समस्त वस्तुओं को देखे या न देखे, लेकिन उसे इष्ट तत्त्व को देखना चाहिए। अगर दूरदर्शी आत्मा प्रमाणभूत है तब तो हमें गीधोंकी उपासना करनी चाहिए; क्यों कि अनंत देशकाल नहीं सही, फिर भी दूर देश तक देख सकने की तो उनमें ताकत है। लेकिन यह कुछ नहि, इष्ट तत्त्व का दर्शन जिसे हुआ हो वह पुरुष प्रमाण माना जाता है, उपासनीय है। सर्वज्ञता तो संभवित ही नही है, क्यों कि अतीत-अनागत-वर्तमान अनंत काल के समस्त पदार्थों के दर्शन पेदा होने के लिए कारणसामग्री ही बन सकती नहीं; न वे मोजूद हैं, न उनके साथ इन्द्रियसंनिकर्षादि हैं; तब उन सबों के प्रत्यक्ष दर्शन परमात्मा को भी कैसे हो सके ?" - यह उन लोगों का अभिप्राय है।
अप्रतिहत कैसे :- इसका निषेध करने की इच्छा से 'अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं' पद दिया गया। परमात्मा जो अप्रतिहत वर ज्ञान दर्शन को धारण करते हैं उनके प्रति मेरा नमस्कार हो, - यह इसका तात्पर्य है। 'अप्रतिहत' का अर्थ है सर्वत्र यानी सकल देश और सर्व काल में अप्रतिस्खलित; अर्थात् ऐसा ज्ञानदर्शन कि जो कहीं भी स्खलना न पावे, किसी भी देश एवं किसी भी काल के पदार्थ में पहुंच न सके ऐसा नहीं, सर्व देशकाल के वस्तु को जान सके ऐसा; क्यों कि वे ज्ञानदर्शन क्षायिक हैं, समस्त आवरण कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए हैं। ज्ञानदर्शन आत्मा के स्वभावभूत गुण है, न कि बाह्य सामग्री से उत्पन्न होने वाले आगन्तुक गुण ! इसलिए वे ज्ञेयमात्र के अवगाहन करने वाले गुण हैं। उन पर आवरण लग जाने से ऐसा कार्य वे नहीं कर पाते हैं, लेकिन जब आवरणमात्र नष्ट किये जाये, तब सहज है कि वे सर्व वस्तुओं का प्रकाशन करने में अस्खलित गति हो।
'वर' कैसे ? :- ऐसे ज्ञान और दर्शन 'वर' हैं अर्थात् संपूर्ण होने से समस्त अपूर्ण ज्ञानदर्शनों की अपेक्षा प्रधान हैं; और समस्त अन्य गुणों की अपेक्षा भी प्रधान है, क्यों कि वे अग्रस्थायी है और आत्मा का मुख्य स्वरूप हैं।
'ज्ञान दर्शन' : सामान्य विशेष :- ज्ञान और दर्शन दोनों प्रकार के बोध, यहां कोई आवरण न होने से, इन्द्रिय प्रत्यक्ष या अनुमान अथवा आगमज्ञान स्वरूप नहीं, किन्तु आत्मसाक्षात्कार रूप होते हैं। इन में 'ज्ञान' विशेषबोधरूप और 'दर्शन' सामान्य बोधरूप है। पहले कह आये कि वस्तुमात्र के दो स्वरूप होते हैं, सामान्य
और विशेष । सामान्यरूप अन्य वस्तुओं में भी अनुवृत्त यानी संलग्न होता है, और विशेषरूप वस्त्वन्तर से व्यावृत्त यानी अलग्न होता है; उदाहरण के लिए, घड़े में सामान्य रूप जो मिट्टीपन है वह शराव, कुंडी, मृत्पिड वगैरह में भी अनुवृत्त है, और विशेष रूप जो घड़पन है वह उन सबों से व्यावृत्त है। घड़े में और भी कई सामान्य धर्म एवं कइ विशेष धर्म रहते हैं। ऐसे वस्तु मात्र में अनन्त सामान्य-विशेष होते हैं। जब वस्तु का बोध किया जाए, तब इन दोनों में से एक मुख्य रहता है, दूसरा गौण । अतः वस्तु का बोध जब जब मुख्यतः सामान्य रूप से किया जाए तब तब वह 'दर्शन' कहलाता है, और जब मुख्यतः विशेष रूप से हो, तब वह 'ज्ञान' कहा जाता है। परमात्मा ऐसे सभी सामान्य विशेषों के अप्रतिहत प्रधान ज्ञान दर्शन को धारण करते हैं।
अर्हत् परमात्मा में अप्रतिहत प्रधान ज्ञानदर्शन होने का कारण यह है कि जब उन में सर्व विषयों के ज्ञान एवं दर्शन का स्वभाव है अर्थात् सार्वदिक् सर्वज्ञता - सर्वदर्शिता का स्वभाव है और उसके ऊपर अब कोई आवरण है नहीं, तो वे अप्रतिहत - प्रधान - ज्ञानदर्शनधर क्यों न हो? यहां सर्वज्ञता - सर्वदर्शिता सार्वदिक् कही गई वह संसार-काल में भी निश्चय दृष्टि से समझना; क्यों कि व्यवहार दृष्टि से तो वहां अज्ञान प्रगटे होने से वह नहीं है। अथवा मोक्ष में जो सार्वदिक सर्वज्ञता सर्वदर्शिता कही गई, उस पर शङ्का हो सकती है कि जिनागम में तो
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