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देख सकते हैं। ज्ञान की साधना करने के लिए पढाई का परिश्रम करते हैं तो क्रमशः ज्ञानवृद्धि का अनुभव होता है। यह ज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धि क्या है ? ज्ञानावरण कर्मों का बढता जाता क्षय । पहले आवरण ज्यादे थे, तो ज्ञान प्रगट नहीं था; अब कुछ ज्ञान प्रगट हुआ है तब समझना चाहिए कि आवरणों का कुछ ह्रास हुआ है । तो सिद्ध होता है कि सर्वोच्च प्रतिपक्ष सेवन से कर्मावरण बिलकुल नष्ट हो सर्वज्ञता भी उत्पन्न हो सकती है ।
प्रo - ठीक है, प्रतिपक्षसेवन से अंशतः आवरण क्षय हो, क्यों कि वैसा अनुभव में आता है, लेकिन समस्त आवरणों का नाश कैसे संभवित है ? उसका निर्णय कहां से हो सकेगा ?
उ०
ओहो ! उसमें क्या दिक्कत है ? देखते हैं कि जो जिसके द्वारा अंशत: क्षीण होते हैं वे उनकी उत्कृष्ट कक्षा प्राप्त होने पर सर्वथा भी क्षीण हो जाते हैं। इसमें कोई असंभव नहीं है । दृष्टान्त से थोड़ी चिकित्सा से रोग का कुछ क्षय; और उत्कृष्ट चिकित्सा से सर्वथा रोगनाश; एवं अल्प पवन से बादल का कुछ विखरना, और अतिशय पवन से बादल का सर्वथा अभाव, होता है। ठीक इसी प्रकार, जीव से एकरस हुए भी कर्म - आवरण, चिकित्सा से रोग की तरह, प्रतिपक्षभूत सम्यग्दर्शनादि के सेवन से क्षीण हो ही जाएँ इसमें कोई रुकावट नहीं होती। इसलिए आवरणों का सर्वथा क्षय उपपन्न नहीं हो सकता हैं यह बात गलत है, युक्ति-युक्त नहीं है।
अब प्रस्तुत में, जब समस्त आवरण का क्षय हुआ तब त्रिकालवर्ती सर्व ज्ञेय पदार्थों का पूर्ण बोध प्रगट होता है, क्यों कि जीव का ऐसा स्वभाव कि आवरण आमूल नष्ट हो जाने पर स्वभावभूत सर्वज्ञान प्रगट हो जाए। और स्वानुभव एवं अनुमान - तर्क आदि से भी यह प्रतीत होता है कि निद्रादि आवरण के क्षयविशेष से ज्ञान का प्रकर्ष हो उठता है ।
प्र०
प्रकृष्ट ज्ञान हो, किन्तु इससे सभी ज्ञेय कैसे जाने जाएँ ?
영
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• उत्कृष्ट ज्ञान प्रगट हुआ तब तो कोई भी ज्ञेय इसका विषय न हो ऐसा तो बन ही नहीं सकता । क्यों कि निखिल सत्पदार्थ जब ज्ञेय हैं तो 'ज्ञेय' का अर्थ ही यह है कि वे ज्ञान-ग्राह्य हैं; और जब वैसे ज्ञानग्राह्यस्वरूप का वे उल्लंघन नहीं कर सकते हैं तब वे किसी-न-किसी ज्ञान के विषय अवश्य होने ही चाहिए। तो ज्ञान, उत्कृष्ट रूप का प्रगट हो जाने से वह निखिल ज्ञेयों का अवगाहन करेगा ही । निरावरण ज्ञान की मर्यादा नहीं बांध सकते है कि वह उतना ही जान सकता है ज्यादा नहीं । सर्वोत्कृष्ट ज्ञान जिसे केवलज्ञान कहते हैं वह सर्व आवरण नष्ट हो जाने पर उत्पन्न होता है तो वह निरावरण होने की वजह समस्त ज्ञेयों को पहुंचने में अस्खलितगतिक है | अतः प्रस्तुत 'अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं' सूत्र का अर्थ जो 'अस्खलित अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन का धारकत्व' है उसका यहां अतिक्रमण नहीं होता है। यदि भगवान के द्वारा समस्त आवरण का क्षय न किया जा सके, एवं वे प्रतिहत यानी अपूर्ण ज्ञानदर्शन वाले ही रह जाए, तभी यह सूत्र गलत अर्थवाला हो स्वार्थ के उल्लंघन का प्रसङ्ग आ सकता है।
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फलित यह होता है कि अरहंत स्वरूप वस्तु अप्रतिहतवरज्ञानदर्शन प्रकार वाली ही है। अगर वे इस प्रकार न हो तो परिपूर्ण परोपकार का संपादन नहीं कर सकते हैं; कारण, सत्पुरुषार्थ में इष्टतत्त्व की तरह इस से विलक्षण अनिष्ट का बोध भी उपयुक्त है; किन्तु ऐसे विलक्षण यानी अनिष्ट तत्त्व, और त्याज्य अभिप्राय एवं द्रव्यक्षेत्र - काल-भाव, उनका वहां पूरा बोध ही नहीं हुआ होगा ।
प्र० - सभी त्याज्य तत्त्वों का बोध न हुआ हो इस से क्या ? 'इष्टं तत्त्वं तु पश्यतु' - वे इष्ट तत्त्व जानें, इससे इष्ट में प्रवृत्ति करा सकेंगे न ?
उ० - ऐसा नहीं है; क्यों कि इष्ट यानी उपादेय तत्त्व पूर्णरूप से तभी जाना जाता है कि जब समस्त त्याज्य यानी हेय तत्त्वों का पूर्ण ज्ञान हो । कारण, हेय का ज्ञान और उपादेय का ज्ञान, ये दोनों ह्रस्वता - दीर्घता या पितृत्व-पुत्रत्व की तरह परस्पर सापेक्ष है, एक के बिना दूसरा अस्तित्व ही पा सकता नहीं है। उदाहरणार्थ असत्य
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