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(ल० - पृथग्भाव : शुद्धब्रह्मत अशुद्धतो वा ? :-) न 'सकृद्विचटनस्वभावत्वकल्पनयाऽद्वैतेऽप्ये- वमेवादोष' इति न्याय्यं वचः, अनेकदोषोपपत्तेः । तथाहि - तद्विचटनं शुद्धादशुद्धाद्वा ब्रह्मणः ? इति निरुपणीयमेतत् । शुद्धविचटने कुतस्तेषामिहाशुद्धिः? अशुद्धविचटने तु तत्र लयोऽपार्थकः ।
(पं० -) अत्रैव परमतमाशक्यपरिहरन्नाह 'न' = नैव, 'सकृद्विचटनस्वभावत्वकल्पनया' एक - वारं परमब्रह्मणः सकाशाद्विभक्तिभावस्वभावत्वकल्पनया, 'अद्वैतेऽपि' परमब्रह्मलक्षणे, किं पुनः द्वैते, 'एव - मेव' = भवदभ्युपगमन्यायेनैव, 'अदोषः' = उपचरितं जितभयत्वमेवंलक्षणदोषाभावः, 'इति' = एवंरूपं, 'न्याय्यं' = न्यायानुगतं, 'वचो' = वचनम् । कुत इत्याह 'अनेकदोषोपपत्तेः' । तामेव भावयति 'तथाही'ति पूर्वोक्तभावनार्थः । 'तत्' = सकृद्, 'विचटनं' = विभागो, ब्रह्मणः सकाशात् क्षेत्रविदामितिगम्यते, 'शुद्धात्' = सकलदोषरहिताद्, 'अशुद्धाद्' = इतररूपात्, 'वा'शब्दो विकल्पार्थः, 'ब्रह्मणः' = परमपुरुषादद्वैतरूपात् 'पुरुष एवेदमि'त्यादिवेदवाक्यनिरूपितात्, ‘इति' = एवं, 'निरू पणीयं' = पर्यालोच्यम्, 'एतत्' = सकृद्विचटनं, प्रकारद्धयेऽपि दोषसंभवात् । दोषमेव दर्शयति ('शुद्धविचटने' =) शुद्धाद् ब्रह्मणो विचटने, 'कुत: ?' न कुतश्चिदित्यर्थः 'तेषां' = क्षेत्रविदाम्, ‘इह' = संसारे, 'अशुद्धिः,', यत्क्षयार्थं यमनियमाभ्यासो योगिनामिति 'अशुद्धविचटने तु' = अशुद्धाद्विचटने पुनः, 'तत्र' = ब्रह्मणि, 'लयः 'उक्तरूप: 'अपार्थकः' = निरर्थकः, तदशुद्धिजन्यस्य क्लेशस्य तत्रापि मुक्तानां प्राप्तेः। के न्याय से केवल साक्षात् भयभाव से ही नहीं किन्तु भययोग्य स्वभाव से भी, अर्थात् सर्व प्रकार से भय की, - निवृत्ति हो गई है। . जीव का पृथग्भाव शुद्ध ब्रह्ममें से या अशुद्ध ब्रह्ममें से ? दोनों ही असंगत :
प्र० - अद्वैत मत में मोक्ष होने के बाद जीव का पुनः पृथग्भाव होने की आपत्ति आप देते हैं, लेकिन ऐसी आपत्ति को अवकाश नही मिलेगा; चूंकि हम परमब्रह्म में से एक ही वार जीव विभक्त होने का स्वभाव मान लेंगे। वह मोक्ष के पूर्व हो गया सो हो गया; अब तो जैसे आप के मत में मोक्ष होने के बाद औपचारिक जितभयत्व एवं पुनः संसार की आपत्ति नहीं, वैसे हमारे अद्वैतमत में भी औपचारिक जितभयत्व का एवं फिर से पृथग्भाव स्वरूप संसार होने का दोष कहां है ? क्योंकि ऐसा स्वभाव ही नहीं है, और 'स्वभावो दुरतिक्रम':स्वभाव का उल्लंघन नहीं हो सकता।
उ० - आपका यह कथन युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि ऐसे स्वभाव की कल्पना करने में अनेक दोषों की आपत्ति है। यह इस प्रकार, - परमबह्म में से जीवों का एकबार जो अलग पड़ने का आप मान लेते हैं, तो हम आपसे पूछते हैं कि वह अलग पड़ने का क्या सकल दोष रहित ऐसे शुद्धब्रह्म में से होता है या अशुद्ध ब्रह्म में से? वेदशास्त्रने 'पुरुषेवेदं ग्नि सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं' ऐसे वाक्य से कहा है कि 'एक मात्र परम पुरुष ही सब कुछ है, जो कुछ है और जो कुछ होने वाला है यह कोई स्वतन्त्र सद्वस्तु नहीं किन्तु अद्वितीय परमपुरुष मात्र रूप ही है, तो ऐसा एकबार भी पृथग्भाव क्या शुद्ध परमपुरुष में से हुआ? या अशुद्ध में से? यह चिन्तनीय है। कारण यह है कि दोनों प्रकार में दोष है। यह इस प्रकार :
अगर कहें, शुद्धब्रह्म में से जीवोंका पृथग्भाव हुआ, तब उनको संसार में अशुद्धि कहांसे हुई । अर्थात् अशुद्धि ही नहीं हो सकती हैं कि जिसके निवारणार्थ योगी लोग यम नियमों का अभ्यास करें। और यदि कहें, नहीं
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