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(ल० - ) एवं हि भूयो भवभावेन न सर्वथा जितभयत्वं, सहजभवभावव्यवच्छित्तौ तु तत्तत्स्वभावतया भवत्युक्तवत् शक्तिरूपेणापि सर्वथा भयपरिक्षय इति निरुपचरितमेतत् ।
(पं० - ) ततः किम् ? इत्याह एवं' = भूयः पृथक्त्वापत्त्या, 'हिः' = यस्माद्, 'भूयो भवभावेन' = पुनः संसारापत्त्या, 'न' = नैव, 'सर्वथा' शक्तिक्षयेणापि, 'जितभयत्वम्' उक्तरूपं, यथा स्यात्तदाह (प्र० .... तथाह) 'सहजभवभावव्यवच्छित्तौ तु' सहजस्य = ब्रह्मविचटनादेः कुतोऽप्यप्रवृत्तस्य जीवतुल्यकालभाविनो, भवभावस्य = संसारपर्यायस्य, व्यवच्छित्तौ = क्षये, पुनः किम् ? इत्याह 'तत्तत्स्वभावतया', तस्याः = सहजभवभावव्यवच्छितेः (तत्स्वभावतया =) जितभयत्वस्वभावतया 'भवत्येतदि'त्युत्तरेण सह संबन्धः, कीदृशमित्याह 'निरुपचरितं' = तात्त्विकं, कुत इत्याह 'उक्तवत्' = प्रागुक्तशिवाचलादिस्थानप्राप्तिन्यायेन, 'शक्तिरूपेणापि' = भययोग्यस्वभावेनापि, किं पुनः साक्षाद् भयभावेन, अत एवाह सर्वथा' = सर्वप्रकारैः, 'भयपरिक्षयो' = भयनिवृत्तिः, 'इति' = अस्माद्वेतोः, 'एतत्' जितभयत्वमिति ।
इसीलिए कहलाते हैं कि संसार के प्रपञ्च यानी विस्तार से बिलकुल मुक्ति पा लेने के कारण उन्होंने भयों को नष्ट कर दिया है। सभी प्रकार के भय संसारसंबन्ध से ही उपस्थित होते हैं; लेकिन जब हमेशा के लिए संसारसंबन्ध का ही क्षय किया जाए तो भय का कोई उत्थानकारण ही न रहने से भय भी क्षीण हो जाता है, यह स्पष्ट है, वास्तविक स्थिति हैं।
अद्वैत में भवक्षय अशक्य है :- वस्तुस्थिति रूप से जितभयत्व होने के इस निर्देश से अद्वैत में मुक्ति होने का असंभव सूचित होता है, अर्थात् यदि एक मात्र शुद्ध ब्रह्म ही सत् हो तब भगवान या कोई भी जीव मुक्त यानी भवक्षय वाला नहीं बन सकता । कारण यह है कि अद्वैत में तो सभी संसारी जीव शुद्ध ब्रह्म परमपुरुष के स्फुलिङ्ग यानी अवयव रूप ही हैं। अब उनको परम ब्रह्म से अलग होने या रहने में हेतु कौन है ? और तो कोई काल आदि हेतु कह सकते नहीं क्योंकि ऐसा कोई सत् पदार्थ तो अद्वैतमतमें है नहीं । अन्ततो गत्वा ब्रह्म से जीवों के पृथग्भाव होने के प्रति ब्रह्मसत्ता को ही हेतु कहना होगा। अब इसका परिणाम देखिए कि आपके मतानुसार होने वाले मुक्तात्मा के लय के अवसर पर ब्रह्मसत्ता तो वैसी न वैसी ही खड़ी है अर्थात् मुक्तजीव के पृथग्भाव में हेतु होने के लिए तैयार ही है। फलतः जैसे एकवार पहले, वैसे मुक्तिके बाद भी फिर पृथग्भाव होने का प्रसङ्ग उपस्थित होगा। और पृथग्भाववश पुनः संसार की आपत्ति लगेगी।
परमब्रह्म-लय के मत में भयशक्ति का क्षय नहीं :- जब पुनः पृथग्भाववश फिर से संसार की आपत्ति आई तब तो मोक्ष होने पर भी सर्वथा जितभयत्व अर्थात् भय-शक्तिक्षय तक का भय-विजय नहीं बना। तात्पर्य, अब तो कोई भय नहीं है लेकिन भविष्य काल में भी कोई भय उत्थान पा सके ऐसी भयशक्ति, भययोग्यता भी अब न रहे, -- भयों का तो नाश कर दिया, भयशक्ति भययोग्यता का भी नाश कर दिया - ऐसी जितभयता परम ब्रह्म में मक्त का लय मानने पर नहीं बन सकती। सर्वथा भय-क्षय तो तभी उत्पन्न हो सके कि जीव का संसार - पर्याय परमब्रह्म से पृथग्भाव होने रूप नहीं किन्तु जब से जीव का अपना अस्तित्व है तबसे ले कर वह अपना स्वतन्त्र वास्तविक पर्याय हो; अर्थात् संसार किसी ब्रह्मपृथग्भाव आदि कारण से प्रवर्तमान रूप नहीं किन्तु जीव के साथ निजी वास्तव से अपने हेतुवश प्रवर्तमान हो । ऐसे सहज संसारपर्याय का सर्वथा क्षय हो तभी मुक्ति होने पर अब कोई भय तो क्या, परन्तु भययोग्यता भी नही ठहर सकती, मुक्ति सर्वथा जित-भयत्वस्वभाव रूप से बन सकती है। वही जितभयत्व अनौपचारिक है; क्योंकि पूर्वकथानुसार शिव - अचल आदि स्थानप्राप्ति
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