________________
(ल० - ) न चास्य कश्चिदविषय इति स्वार्थानतिलङ्गनमेव । इत्थं चैतद्, अन्यथा अविकलपरार्थसंपादनासम्भवः, तदन्याशयाद्यपरिच्छेदादिति सूक्ष्मधिया भावनीयम् । ज्ञानग्रहणं चादौ सर्वा लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्येति ज्ञापनार्थमिति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधराः ॥ २५ ॥
(पं० -) ततः किम् ? इत्याह 'नच,"अस्य' = ज्ञानातिशयस्य प्रकृष्टरूपस्य, 'कश्चित्' ज्ञेयविशेषः, 'अविषयः' = अगोचरः, सर्वस्य सतो ज्ञेयस्वभावानतिक्रमात्, केवलस्य निरावरणत्वेनाप्रतिस्खलितत्वात्, ‘इति' :: एवमुक्तयुक्तया, 'स्वार्थानतिलङ्घनमेव', स्वार्थः प्रकृतसूत्रस्याप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरत्वं, तस्य अनतिलङ्घनमेव - अनतिक्रमणमेव, प्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरत्वे हि भगवतां वितथार्थतया सूत्रस्य स्वार्थातिलङ्घनं प्रसजतीति । 'इत्थं चैतद्,' इत्थमेव = अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनप्रकारमेव, एतद् = अहल्लक्षणं वस्तु; विपक्षे बाधामाह 'अन्यथा' = उक्तप्रकाराभावे, 'अविकलपरार्थसंपादनासंभवः' अविकलस्य = परिपूर्णस्य, परार्थस्य = परोपकारस्य भगवतां, (संपादनासंभवः =) घटनाऽयोगः, कु त इत्याह 'तदन्याशयाद्यपरिच्छेदात्', तदन्येषां = पुरुषार्थोपयोगीष्टतत्त्वविलक्षणानाम्, आशयादीनाम् = अभिप्रायद्रव्यक्षेत्रकालभावानाम्, अपरिच्छेदाद् = अनवबोधात्, सकलहेयपरिज्ञाने ह्यविकलमुपादेयमवबोद्धं शक्यं, परस्परापेक्षात्मलाभत्वाद्धेयोपादेययोः, हुस्वदीर्घयोरिव पितृपुत्रयोरिव वेति सर्वमनवबुद्धमानाः कथमिवाविकलं परार्थं संपादयेयुरिति ।
कर्मबन्ध के हेतुओं के प्रतिपक्ष उपाय :- इन मिथ्यात्वादि सामान्य हेतुओं के प्रतिपक्षी (विरोधी) हैं सम्यग्दर्शनादि उपाय । मिथ्यात्व यानी सर्वज्ञोक्त तत्त्व की अरुचि (अश्रद्धा) का प्रतिपक्षी है सम्यग्दर्शन अर्थात् तत्त्वरुचि; अविरति यानी हिंसादि-प्रतिबद्धता का विरोधी हैं चारित्र (विरति) अर्थात् प्रतिज्ञापूर्वक हिंसादि - त्याग; कषाय का प्रतिपक्षी है सम्यग्ज्ञान-तपयुक्त उपशम-भाव; योग में आरम्भ - विषय - परिग्रहादि अप्रशस्त योगों के प्रतिपक्ष हैं ज्ञानाचारादि प्रशस्त योग, और प्रशस्त योगोंका प्रतिपक्ष है शैलेशीकरण एवं अयोग अवस्था, प्रमाद का प्रतिपक्षी है अप्रमाद । तात्पर्य, सम्यग्ज्ञान - दर्शन - चारित्र - तप, एवं अप्रमाद तथा अयोग, ये सब उपाय मिथ्यात्वादि सामान्य कर्मबन्ध-हेतुओं के प्रतिपक्षी हैं; और कर्मबन्धन के विशेषहेतुभूत ज्ञानादि-विरोधअन्तराय वगैरह के प्रतिपक्षी हैं ज्ञानादि की भक्ति - उपासना - दान इत्यादि।
प्रतिपक्षसेवन से पूर्वरोगनाश :- यदि इन प्रतिपक्षी उपायों के आसेवन का अभ्यास किया जाए अर्थात् उनका बार बार आसेवन किया जाय तो सहज है कि मिथ्यात्वादि से उपार्जित कर्मबन्धन दूर हो जायेंगे। नियम है कि जो जिसके कारण का विरोधी है उस विरोधी के सेवन से वह क्षीण हो जाता है। उदाहरणार्थ, रोमाञ्च खड़े करने में कारणभूत है जाड़ा और उसके विरुद्ध है अग्नि; तो उस अग्नि के आसेवन से रोमाञ्चादि विकार नष्ट हो जाता है । ठीक इसी प्रकार, कर्मावरण में कारणभूत मिथ्यादर्शनादि के विरोधी है सम्यग्दर्शनादि गुणसमूह; तो उन सम्यग्दर्शनादि के आसेवन से कर्मावरण नष्ट होना युक्तियुक्त है। यहां, इस प्रकार कारण-विरुद्ध-उपलब्धि हुई; जिस प्रकार किसी प्रकाशादि वस्तु के विरुद्ध अंधकारादि पदार्थ उपलब्ध होता है तो वहां उस प्रकाशादि वस्तु का अभाव सिद्ध होता है, इस प्रकार उसके कारण के विरुद्ध पदार्थ उपलब्ध होने से भी उसका अभाव सिद्ध होता है। तो यहां कर्मकारण से विरुद्ध सम्यग्दर्शनादि की उपलब्धि से कर्मक्षय प्राप्त हो जाए इस में कोई संदेह नहीं ।
प्र० - कर्मक्षय तो अतीन्द्रिय है, प्रत्यक्ष दिखाई पडता नहीं है। तो फिर सम्यग्दर्शनादि से वह अवश्य होता है इस प्रकार के नियम (व्याप्ति) का निर्णय कैसे हो सकता है? उ० -- प्रतिपक्षभूत सम्यग्दर्शनादि के सेवन से कर्मावरणों का अंशतः क्षय होता आता है यह ज्ञानादि में
१८७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org