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( ल० विशिष्ट प्रतिबिम्बसिद्धान्तः ) एतेन विषयाकाराप्रतिसंक्रमादिना ज्ञानस्य प्रति बिम्बाकारताप्रतिक्षेपः प्रत्युक्तः, विषयग्रहणपरिणामस्यैव प्रतिबिम्बत्वेनाभ्युपगमात् । एवं, साकारं ज्ञानमनाकारं च दर्शनमित्यपि सिद्धं भवति, ततश्च सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः । तेभ्यो नम इति क्रियायोगः ॥ ३१ ॥
ताया)
(पं० -) अथ प्रसङ्गसिद्धिमाह ' एतेन' = विषयग्रहणपरिणामस्यैवाकारत्वेन, 'विषयाकाराप्रतिसंक्रमादिना', विषयाकारस्य = ग्राह्यसंनिवेशस्य, अप्रतिसंक्रमः = स्वग्राहिणि ज्ञानेऽप्रतिबिम्बनं, विषयाकाराप्रतिसंक्रमः । विषयाकारप्रतिसंक्रमे हि एकत्वं वा ज्ञानज्ञेययोरेकाकारीभूतत्वात्, विषयो वा निराकारः स्यात्, तदाकारस्य ज्ञाने प्रतिसंक्रान्तत्वाद्, यदाह धर्म्मसंग्रहणीकार: 'तदभिन्नाकारत्ते, दोण्हं एगत्तमो कहं न भवे ? नाणे व तदाकारे, तस्साणागारभावोति ॥ १ ॥ 'आदि' शब्दात् प्रतिनियतप्रतिपत्तिहेतोर्ज्ञेयेन तुल्याकारतया (प्र० . तायां ..... ज्ञानस्य, प्रतिषेधो दृश्यः; क्रमवृत्तिनोर्ज्ञेयज्ञानयोः क्षणिकयोः क्षणस्थायिना ज्ञानेन उभयाश्रितायास्तस्या एव प्रतिपत्तुमशक्यत्वात् । किं च तुल्यत्वं नाम सामान्यं, तच्चैकमनेकव्यक्त्याश्रितमिति कथं न तदाश्रितदोषप्रसंग: ? अत्राप्याह - सिय ततुल्लागारं जं तं भणिमो तयं तदागारं । अत्रोत्तरं - तग्गहणाभावे नणु तुल्लत्तं गम्मई कह णु ? | १ | तुल्लत्तं सामन्नं एगमणेगासियं अजुत्ततरं । तम्हा घडादिकज्जं दीसइ मोहाभिहाणमिदं ॥ २ ॥ ततस्तेन विषयाकाराप्रतिसंक्रमादिना कारणेन, ज्ञानस्य' विज्ञानस्य विषयग्राहिणः, 'प्रतिबिम्बाकारताप्रतिक्षेपो' ज्ञानवादिप्रतिज्ञातो 'विषयप्रतिबिम्बाकारं विज्ञानं न घटते, किन्तु अबाह्याकारमेव सत्स्वभावमात्रप्रतिभासीत्येवंरूपः 'प्रत्युक्तः' = निराकृतः । 'विषयग्रहणे' त्यादि, हेतुश्च प्रतीतः 'एवं' = मुक्तरूपपरिणामस्याऽऽकारत्वे, सामयिकविवक्षया 'साकारं' = विशेषग्रहणपरिणामवत्, 'ज्ञानम्' उपयोगविशेष:, 'अनाकारं च' सामान्यग्रहणपरिणामवत् (च), 'दर्शनम्' = उपयोगभेद एव, 'इत्यपि ' = एतदपि, 'सिद्धं भवति' ।
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संक्रमणादि होने की वस्तुस्थिति है ही नहीं; इसलिए विज्ञानवादी बौद्ध ज्ञान में जो प्रतिबिम्बसंक्रमण का खण्डन कर मोक्ष में असर्वज्ञता चाहते हैं वह वास्तविक नहीं है; क्यों कि ऐसा, वर्णादिआकार के संक्रमण स्वरूप प्रतिबिम्ब हमें मान्य ही नहीं है। हमें तो विषयग्रहणपरिणाम स्वरूप प्रतिबिम्बाकारता स्वीकृत है ।
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यहां विषयाकार प्रतिबिम्बका, विज्ञानवादी किस प्रकार, खण्डन करते हैं यह अब स्पष्ट किया जाता है। विषयाकार के संक्रमण का विज्ञानवादी द्वारा खण्डन :- "यदि ज्ञान में विषय के आकार का संक्रमण होता हो, तब तो ज्ञेयविषय और ज्ञान का अभेद प्राप्त होगा, दोनों एक आकारवाले हो जाने से एक व्यक्ति हो जाएँगे। अगर आप कहेंगे कि आकारमात्र संक्रमित हुआ, विषय तो यों ही अलग ठहरा है, तो यह आपत्ति उपस्थित होगी कि विषय आकारशून्य यानी निराकार हो जाएगा क्यों कि उसका आकार तो ज्ञान में चला गया।" ग्रन्थकार अपने 'धर्मसंग्रहणी' शास्त्र में इसी वस्तु इस प्रकार कहते हैं, - "ज्ञान अगर विषयाकार से अभिन्नाकार हो, तो ज्ञान और विषय दोनों एक ही व्यक्तिरूप क्यों न हो जाए ? क्यों कि उभय एक ही आकार से अभिन्न हुए; अथवा कहिए सिर्फ ज्ञान ही उस आकार वाला होता है, तब तो प्रश् होगा कि वह आकार कहां से आया ? यदि विना निमित्त उत्पन्न हो तो सभी ज्ञान एकाकार होने लगेंगे। यदि आकार विषय में से ज्ञान में संक्रमित होता हो तो विषय अपना आकार खो बेठने से निराकार यानी आकारशून्य हो जाएगा। और यह तो अनुभव नहीं है कि ज्ञान करने को जाए और ज्ञान एवं विषय एक व्यक्तिरूप हो जाएँ, या विषय निराकार हो जाए ।
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'अगर आप कहेंगे कि - 'विषयगत आकार का, ज्ञान में समर्पण नहीं होता है किन्तु उस आकार के
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