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तुल्य आकार ज्ञान में उत्पन्न होता है, इस लिए ज्ञान विषयाकार कहा जाता है'; तो यह भी सिद्ध नहीं; क्योंकि तब तो प्रश् होगा कि पहले जब तक विषय ही गृहीत नहीं हुआ, तब तक विषयाकार के साथ ज्ञानाकार में तुल्यता है यह ज्ञात कैसे हो सकेगा ? किसी दोनों के बीच में रही हुई तुल्यता यानी सादृश्य तभी ज्ञात हो सकती है कि जब वे दोनों पहले गृहीत हुए हों । उदाहरणार्थ, मुख और चन्द्र दोनों के दर्शन होने के पश्चात् ही मुख में चन्द्रसादृश्य प्रतीत होता है। यहां ज्ञान एवं पदार्थ क्षणिक होने से क्षण में ही संविदित हो नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं तो ज्ञान विषय के समान आकार वाला है यह कौन ज्ञात करेगा ?
"यदि कहें 'तुल्य आकार नीलादि ज्ञान के स्वसंवेदन से सिद्ध है । वैसा अनुभव होता ही है, इससे ज्ञात होता है कि विषय ज्ञानाकार तुल्य है । देखते हैं लोग कहते भी हैं कि मुझे नीलाकार ज्ञान उत्पन्न हुआ इसलिए बाहर भी नीलविषय होना चाहिए: " - यह भी ठीक नहीं क्योंकि ज्ञानका स्वसंवेदन यानी दर्शन क्या है ? ज्ञानगत प्रकाशात्मक स्वरूपमात्र का अनुभव न ? इसके आधार पर विषय का यदि नीलाकार होने का निश्चित करें तब तो पीताकार ही क्यों निश्चित न हो ? प्रकाशस्वरूप तो सभी ज्ञान में समान ही संविदित होगा । तात्पर्य, ज्ञान के स्वसंवेदनमात्र से विषय के तुल्य आकार का निश्चय नहीं हो सकता ।
"और भी यह अनुपपत्ति है कि तुल्यत्व यानी समानता कहिए या सामान्य कहिए वह एक ही व्यक्ति है, वह विषयाकार और ज्ञानाकार, इन दोनों में कैसे ठहर सकता है ? आश्रय तो क्षणिक हैं वहां स्थिर एक सामान्य कैसे टिकेगा ? सो एक धर्म अनेक में आश्रित होने की बात अत्यन्त अयुक्त है । इसी लिए यह जो आप मानते हैं कि घड़ा आदि नया कार्य परमाणुओं में उत्पन्न होता है वह भी कथन मोहयुक्त कथन है; क्योंकि अनेक परमाणुओं में एक घड़ा आदि कार्य कैसे रह सके ? एक वस्तु अनेकाश्रित नहीं हो सकती। तभी सत् पदार्थ क्षणिक हैं, तो कार्य के माने गए उपादान आश्रय भी नष्ट हो गए; उनमें अब कार्य को रहने की बात ही कैसी ?"
क्षणिकता के कारण प्रतिबिम्ब का निषेध :- अबाह्याकार विज्ञानवादी कहते हैं, "जिस प्रकार विषयाकार को संक्रमण असंभवित होने की वज़ह ज्ञानमें विषयप्रतिबिम्ब की आकारता नहीं बन सकती हैं, प्रतिबिम्बाकारता निषिद्ध हो जाती है, इसी प्रकार क्षणिकता की वजह भी वह निषिद्ध हो जाती है, । अलबत्ता, उस ज्ञान से उसी ज्ञेय का बोध होता है, घटज्ञान से घट का, वस्त्रज्ञान से वस्त्र का, इस रीति से नियत विषय का ही बोध होता है; इसके लिए आभ्यन्तर ज्ञान में बाह्य विषय की तुल्य आकारता स्वरूप प्रतिबिम्बाकारता आप मानने को जाएँ, लेकिन वह अनुपपन्न है। कारण यह है कि ऐसी उभयस्थ तुल्याकारता का निर्णय कौन करेगा ? चूंकि ज्ञान और ज्ञेयविषय अपनी उत्पत्तिक्षण के बाद ही नष्ट होने वाले अर्थात् क्षणिक हैं, एवं क्रमवर्ती भी हैं, - पहले ज्ञेय उत्पन्न होता है, दूसरी क्षणमें वह नष्ट हो उसका ज्ञान उत्पन्न होता है। यह ज्ञान 'उस विषयका और अपने आकारतुल्य है, ' - यह कैसे जान सकेगा ? क्योंकि वह अभी तो उत्पन्न होता है तो अपना आकार भी अब उत्पन्न होगा, वह आकार और विषय का आकार तुल्य है यह इसी ज्ञान से कैसे जाना जाए ? अनन्तर ज्ञान से भी जानना अशक्य है, क्योंकि वह पूर्वोक्त विषय से उत्पन्न नहीं होने के कारण उसको ग्रहण नहीं कर सकता तो उसके आकार का ग्रहण कैसे कर सकें ? नियम है 'नाकारणं विषयः ' = जो अपना उत्पादक नहीं वह अपना विषय नहीं बन सकता है। सो इस प्रकार उभयस्थ तुल्याकारता का क्षणिक ज्ञान से ग्रहण नहीं हो सकने के कारण भी वह यानी प्रतिबिम्बकारता प्रमाणित नहीं हो सकती।"
जैनमत में विशिष्ट प्रतिबिम्बाकार विषयग्रहणपरिणामरूप में मान्य है :
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