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(पं० - आकारस्य प्रतिबिम्बसंक्रमरू पत्वे दोषः-) ज्ञेयवस्तुप्रतिबिम्बसंक्रमस्य तु तदाकारत्वे ज्ञानस्याभ्युपगम्यमानेऽनेकदोषप्रसङ्गात् व्याप्त्यनुपपतेः, धर्मास्तिकायादिष्वमूर्तत्वेनाकाराभावे प्रतिबिम्बायोगात्, तस्य मूर्तधर्मत्वात्, तथा तत्प्रतिबद्धवस्तुसंक्रमाभावेऽभावात् । न ह्यङ्गनावदनच्छायाणुसंक्रमातिरेकेणाऽs - दर्शने तत्प्रतिबिम्बसंभवोऽस्ति, अम्भसि वा निशाकरबिम्बस्येति, अन्यथातिप्रसङ्गात् । उक्तं च परममुनिभिः
सामा तु दिया छाया अभासुरगया निसिं तु कालाभा । सच्चेव भासुरगया सदेहवण्णा मुणेयव्वा ॥ १ ॥ जे आयरिसस्संतो देहावयवा हवंति संकेता। तेसिं तत्थुवलद्धी पगासजोगा न इयरेसिं ।। २ ॥ इत्यादि ।
चित्रास्तरणाद्यनेक वस्तु ग्रहणावसरे चै कत्राने क प्रतिबिम्बो दयासंभवात्, संभवे वा प्रतिबिम्बसाङ्कोपपतेस्तदनुसारेण परस्परसंकीर्णवस्तुप्रतिपत्तिप्रसङ्गादिति । व्याप्ति नहीं बन सकती है। व्यापक रूप से साकारता अर्थात् सभी ज्ञेय का प्रतिबिम्ब होना असङ्गत है; कारण, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, जीव, - ये द्रव्य अमूर्त यानी रूपादि रहित होने से, उनमें कोई आकार ही नहीं है, फिर आकार का प्रतिबिम्ब पड़ने की बात ही कहां? आकार तो मूर्त द्रव्य का धर्म है। अमूर्त द्रव्य में जब आकार ही नहीं, तो आकार से संबद्ध छायापुद्गल जैसी कोई वस्तु भी नहीं कि जिसका संक्रमण ज्ञान में हो सके; और ऐसा संक्रमण न होने पर प्रतिबिम्ब हुआ ऐसा नहीं कह सकते हैं । प्रतिबिम्ब क्या वस्तु है ? यही कि आकारयुक्त द्रव्य के छाया पुद्गल जो कि प्रतिसमय उसमें से बाहर फैलते रहते है उनका दूसरे में संक्रमण होना। देखते हैं कि दर्पण में स्त्री के मुख की छाया के अणु संक्रमित हुए बिना उसका प्रतिबिम्ब पड़ना शक्य नहीं है अथवा जल में चन्द्र के छायाणु अगर संक्रमण न करें तो उसका प्रतिबिम्ब संभवित नहीं होता है। छायाणुओं के संक्रमण के बिना प्रतिबिम्ब होने का मानने में तो यह अतिप्रसङ्ग होगा कि ढके हुए मुख का प्रतिबिम्ब क्यों न हो? वायु का प्रतिबिम्ब क्यों न पड़ सके ? परममुनि श्री श्रुतकेवली भगवान ने कहा है कि दीवार, भूमि आदि अप्रकाशमान वस्तु पर मूर्त वस्तु की छाया दिन में श्याम जैसी पड़ती है और रात्रि में अत्यन्त काली - जैसी पड़ती है; लेकिन प्रकाशमान दर्पण आदि वस्तु पर छाया अपने देह के ठीक वर्ण समान प्रादुर्भूत हो उठती है। यह भी देखते हैं कि दर्पण में जिन देह-अवयव का संक्रमण होता है उन्ही की, वहां प्रकाश होने पर, उपलब्धि होती है औरों की नही। इससे यह सूचित होता है कि इसी तरह ज्ञान में सिर्फ मूर्त वस्तु का प्रतिबिम्ब पड़ना शक्य है अमूर्त का नहीं; क्योंकि प्रतिबिम्ब के लिए संक्रमण करने वाले आकार रूप छायाणुओं का अमूर्त में अभाव है। एवं जहां विविध वर्ण वाली कम्बलादि-अनेक वस्तु का एक साथ ज्ञान करते है वहां ज्ञान में एक ही वस्तु में अनेक प्रतिबिम्बों का उठना संभवित नहीं होगा; क्योंकि प्रतिबिम्बों का संमिश्रण हो जाएगा, फलतः परस्पर में संमिलित वस्तु की उपलब्धि होने लगेगी ! किन्तु ऐसा अनुभव नहीं होता है। प्रत्यक्ष अनुभव में तो प्रत्येक वस्तु अपने वर्णानुसार अलग अलग ही भासित होती है। सो सिद्ध होता है कि ज्ञान में आकार यह प्रतिबिम्ब के संक्रमण रूप नहीं बन सकता।
जैनमत के प्रति संक्रमणरूप प्रतिबिम्बाकार का आक्षेप अयुक्त है :___ अब श्री ललितविस्तराकार कहते हैं कि - प्रतिबिम्ब यह वस्तु के आकार के संक्रमण स्वरूप नहीं किन्तु आत्मा में उत्पन्न होने वाले वस्तु के ग्रहणपरिणाम स्वरूप ही है, - ऐसा जो पहले प्रतिपादित किया गया, इसके प्रसङ्ग से सिद्ध होता है कि समस्त ही ज्ञेय विषयों में वर्णादि आकार एवं उनके ग्राहकज्ञान में सर्वत्र
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