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(ल० - सयुक्तिकं 'स्थान' - 'शिवा'दिविवेचनम्:-) इह तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानं, व्यवहारतः सिद्धिक्षेत्रम् ‘इह बोंदिं चइत्ता णं तत्थ गंतूण सिज्झइ' त्तिवचनात् निश्चयतस्तु तत्स्वरूपमेव, 'सर्वे भावा आत्मभावे तिष्ठन्ती तिवचनात् । एतदेव विशेष्यते (शिवमित्यादिभिः) तत्र 'शिवम्' इति सर्वोपद्रवरहितत्वाच्छिवम् । तथा स्वाभाविक-प्रायोगिकचलनक्रियारहितत्वान्न चलमचलम् । तथा रुजाशब्देन व्याधिवेदनाभिधानं, ततश्चाविद्यमानरुजमरुजम् तन्निबन्धनयोः शरीरमनसोरभावात् ।
विशेष्य 'स्थान,' एवं 'शिव-अचल-अरोग' विशेषणों के सयुक्तिक अर्थ:
अब सिद्धिस्थान और शिव वगैरह विशेषणों का युक्तिपुरस्सर स्पष्टीकरण किया जाता है। अरहंत प्रभु सिद्धिस्थान को प्राप्त हुए हैं। वहां स्थान का अर्थ है जहां वे ठहरते हैं । ठहरना दो प्रकार से होता है, व्यवहार दृष्टि से और निश्चयदृष्टि से । मुक्त परमात्मा का व्यवहारदृष्टि से स्थान लोकाकाश का अग्रभाग वर्ती सिद्धिक्षेत्र है; क्यों कि शास्त्र में कहा गया है कि 'इह बोंदिं चइत्ता णं तत्थ गन्तूण सिज्झइ', - अर्थात् समस्त कर्मों के क्षय हो जाने से यहां शरीरमात्र का त्याग कर के वहां सिद्धशिला पर जा कर कृतकृत्य होते हैं, ठहरते हैं, शाश्वत अवस्थान करते हैं। निश्चयदृष्टि से तो ठहरने का स्थान दूसरा कोई नहीं, अपना स्वरूप ही है, क्यों कि शास्त्रवचन है कि 'सर्वे भावा आत्मभावे तिष्ठन्ति,' - अर्थात् सभी पदार्थ अपने स्वरूप में ठहरते हैं। इसलिए मुक्त परमात्मा निश्चयदृष्टि से यानी परमार्थतः अपने प्रगट शुद्ध आत्मस्वरूप में अवस्थान करते हैं।
प्र० - ठहरना परमार्थतः अपने स्वरूप में क्यों ? दूसरे स्थान में क्यों नहीं?
उ० - यह उपपन्न नहीं हो सकता है इसलिए। अगर दूसरे स्थान में ठहरता है तब प्रभ होगा कि वहां एक देश से ठहरता है या सर्व देश से? यदि एक देश से ठहरता है तो फिर प्रश्न होगा कि उस एक देश में भी एक देश से ठहरता है, या सर्व देश से? इस प्रकार अनवस्था उपस्थित होगी, और ठहरने का स्थान निश्चित नहीं हो सकेगा । यदि कहें सर्व देश से ठहरता है, तब तो यही आया कि अवस्थान के अलावा कोई देश नहीं बचा, फलतः सर्वात्मना अवस्थान होने से आधार आधेय दोनों एकरूप हो जाएँगे। किन्तु यह तो होता नहीं कि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ में ठहरने को जाए और दोनों एकरूप (अभिन्न) हो जाएँ। इसलिए परमार्थ दृष्टि से अन्य किसी स्थान में ठहरना संगत नहीं हो सकता। आत्मभाव यानी स्वस्वरूप में ठहरने का मान लें तो कोई ऐसी आपत्ति नहीं लग सकती।
प्र० - एक ही वस्तु में आधार-आधेयभाव कैसे?
उ० - ओह ! व्यवहार में भी यह देखते है कि 'गङ्गा में बाढ़ आई' 'वन में बहुत पेड़ हैं', 'मेरे मन में यह विचार आया', इत्यादि । यहां बाढ गङ्गा से, पेड़ वन से, और विचार मन से कोई अलग वस्तु नही है। निश्चयदृष्टि से मुक्त परमात्मा का स्थान जो सिद्धक्षेत्र है वह स्वस्वरूप ही है; उसीमें वे ठहरते हैं।
शिव :- अब सिद्धक्षेत्र स्थान के कई विशेषण दिखलाते हुए कहते हैं कि वह 'शिव' है, अर्थात् समस्त उपद्रवों से रहित होने से बिल्कुल निरुपद्रवी है। अकर्मा हो जाने से, वहां किसी प्रकार के भूतपिशाचादि का, लूंट-चोरी का, शत्रु-आक्रमण का, कलङ्क-अपकीर्ति का यावत् जन्म-जरा-मरण का उपद्रव नहीं है और कभी आने वाला नहीं है।
अचल :- तथा सिद्धक्षेत्र चलायमान नहीं, अचल है; क्यों कि स्वाभाविक या प्रायोगिक कोई चलन
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