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३०. मुत्ताणं मोयगाणं ( मुक्तेभ्यो मोचकेभ्यः) (ल० - जगत्कर्तृलीनमुक्तमत - निरासः) एतेऽपि जगत्कर्तृलीनमुक्तवादिभिः सन्तपनविने - यैस्तत्त्वतोऽमुक्तादय एवेष्यन्ते 'ब्रह्मवद् ब्रह्मसङ्गतानां स्थिति रितिवचनात् । एतन्निराचिकीर्षया - ऽऽह 'मुक्तेभ्यो मोचकेभ्यः ।' चतुर्गतिविपाकचित्रकर्मबन्धमुक्तत्वान्मुक्ताः कृतकृत्या निष्ठितार्था इति योऽर्थः।
३०. मुत्ताणं मोयगाणं (स्वयं मुक्त और अन्यों को मुक्त करने वालों के प्रति) जगत्कर्ता में मुक्तात्मा का लय मानने वालों का मत और उसका निषेध :
अब 'मुत्ताणं मोयगाणं' पद की व्याख्या। यहां संतपन नाम के वादी के शिष्य मानते हैं कि 'ऐसे भी बुद्ध परमात्मा वस्तुगत्या मुक्त-मोचक नहीं हो सकते हैं, अर्थात् मुक्त हो स्वतन्त्र सत्ता वाले नहीं हो सकते हैं', क्यों कि वे संतपनशिष्य जगत्कर्तृलीनमुक्तवादी हैं; - "जो कोई आत्मा संसार से मुक्त होती है वह जगत्कर्ता में लीन हो जाती है, अभेदभाव से मिल जाती है, उसका स्वतन्त्र व्यक्तित्व जैसा कुछ नहीं रहता; वह तो, जैसे समुद्र से अलग हुए पानी समुद्र में मिल जाने पर समुद्र रूप हो जाता है, वैसे जगत्कर्ता स्वरूप हो जाती है। अनन्त आत्मा मुक्त होने पर भी अब वे कोई अलग अलग व्यक्ति नहीं, किन्तु एक जगत्कर्ताव्यक्ति रूप में ही हैं। तात्पर्य, मुक्त जैसा कोई जीव ही नहीं है, सिर्फ एक ही जगत्कर्ता है, और अन्य संसारी जीव हैं।" ऐसा है संपतनशिष्यों का मत; इस में प्रमाण उनका शास्त्रवचन है 'ब्रह्मवद् ब्रह्मसंगतानां स्थितिः- जो मुक्त होते हैं वे ब्रह्म में जा मिलते हैं और एक मात्र ब्रह्म की तरह ही रहते हैं।'
इस मत के निषेधार्थ भगवान की स्तुति की जाती है 'मुत्ताणं मोयगाणं' मुक्तेभ्यो मोचकेभ्यः । इसका अर्थ यह है कि, जो स्वयं मुक्त हुए हैं और अन्य भव्यों को मुक्त कराते हैं उन अर्हत् परमात्मा के प्रति मेरा नमस्कार हो । 'मुक्त' वे कहे जाते हैं जो नरक-तिर्यञ्च-मनुष्य-देव इन चारों गतियों में उदय पाने वाले कर्मों के बन्ध से छूटकारा पाये हुए हैं, अर्थात् जो कृतकृत्य हुए यानी समस्त कर्तव्य कर चुके हैं, जो निष्ठितार्थ हुए हैं अर्थात् जिन के समस्त प्रयोजन सिद्ध हो गए हैं। जीव को कर्मों का सम्बन्ध होने से उनका विपाक नरकादि चतुर्गतिमय संसार में भोगना पडता है; लेकिन तप और संवर की उत्कृष्ट साधना से समस्त कर्मबन्धों का अन्त कर देने पर जीव संसार से अब शाश्वत काल के लिए मुक्त हो जाता है; अपने सहज अनंत ज्ञान-सुखादिमय प्रगट शुद्ध स्वरूप वाला हो जाता है। अब उसे काया, कर्म आदि का कोई भी संबन्ध न रहने से कुछ भी कार्य अवशिष्ट नहीं है। इसी शुद्ध-बुद्ध-मुक्त अवस्था प्राप्त करने के लिए तो शुभ कार्यवाही करने की थी; यह ध्येय प्राप्त हो जाने से अब वह मुक्त आत्मा कृतकृत्य हो गई; प्रयोजन सिद्ध हो गया यानी वह निष्ठितार्थ हो गई। जीव अनादि - स्वतन्त्र वस्तु है, ब्रह्म से अलग हुई चीज नहीं :
फिर भी मुक्त जीव का स्वातन्त्र्य यानी वैयक्तिक अलग अस्तित्व बना रहता है; किन्तु नहीं कि वह जगत्कर्ता में लय पा जा कर निष्ठितार्थ होता है। ऐसी तत्त्वव्यवस्था प्रमाणसिद्ध नही है कि जीव शुद्ध एक अद्वितीय ब्रह्म से जल में से बुबुद की तरह अलग हुआ था, और अन्त में वहां जा कर एकरूप बन निष्ठितार्थ हो जाता है, क्यों कि •(१) शुद्ध ब्रह्म अगर निरवयव है तो निरंशता के कारण जब कोई अंश जैसी चीज ही नहीं है
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