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(ल० - लयमते जगतकर्तृत्वमते च दोषाः) न जगत्कर्तरि लये निष्ठितार्थत्वं, तत्करणेन कृतकृत्यत्वायोगात्; हीनादिकरणे चेच्छाद्वेषादिप्रसङ्गः, तद्व्यतिरेकेण तथाप्रवृत्त्यसिद्धेः । एवं सामान्यसंसारिणोऽविशिष्टतरं मुक्तत्वमिति चिन्तनीयम् ।
(पं० --) 'ने'त्यादि, न = नैव, 'जगत्कर्त्तरि' ब्रह्मलक्षण आधारभूते, 'लये' = अभिन्नरूपावस्थाने, 'मुक्तानां निष्ठितार्थत्वं' कुत इत्याह 'तत्करणेन', तस्य = जगतः, 'करणेन', ब्रह्मसाङ्गत्येन मुक्तानां कृतकृत्यत्वायोगात् । अत्रैवाभ्युच्चयमाह 'हीनादिकरणे' = हीनमध्यमोत्कृष्टजगत्करणे मुक्तानाम् 'इच्छा - द्वेषादिप्रसङ्ग' सङ्कल्पमत्सराभिष्वङ्गप्राप्तिः । कुत इत्याह 'तद्व्यतिरेकेण' इच्छादीन (प्र० .... द्य)न्तरेण, तथाप्रवृत्त्यसिद्धः' = वैचित्र्येण प्रवृत्त्ययोगात् । एवं जगत्करणे 'सामान्यसंसारिणो' = मनुष्याद्यन्यतरस्माद्, 'अविशिष्टतरम्' = अतिजघन्यं, 'मुक्तत्वम्' इति 'चिन्तनीयम्' = अस्य भावना कार्या, अन्यस्य जगत्कर्तुम - शक्तत्वेन परिमितेच्छादिदोषत्वात् । तो अंश अलग होने का अवकाश ही कहां रहा? .(२) ब्रह्म अगर अनादि सर्वशुद्ध है तो अशुद्ध होने का कोई कारण नहीं है; •(३) अगर अनादि काल से अलग कहें, तो ब्रह्म के अलावा और कोई भी ऐसा सत् पदार्थ अलग करने वाला सिद्ध न होने से यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है। कल्पित अविद्या जैसे पदार्थ स्वप्न के कल्पित पदार्थ की तरह कोई व्यवहारोपयोगी कार्य नहीं कर सकता है।
मुक्ति में लय मानने पर चार दोषः जगत्कर्तत्व असंगत :
प्र० - ठीक है पहले से चाहे जीव और ब्रह्म अलग अलग ही हों लेकिन अन्त में जा कर जीव मुक्त हो ब्रह्म स्वरूप हो जाता है, अर्थात् जीव का ईश में यानी जगत्कर्ता में लय हो जाता है, अभिन्नभाव हो जाता है, - ऐसा मानने में क्या हानि है ?
उ० - हानि? (१) एक तो हानि यह है कि तब तो निष्ठितार्थता यानी समाप्त-प्रयोजनता एवं कृतकृत्यता की उपपत्ति नहीं हो सकेगी; क्यों कि जीव ब्रह्ममय हो गया, और ब्रह्म को अब भी कई और मुक्त होने वाले जीवों को अपने में लीन करना है, यह प्रयोजन अपूर्ण असमाप्त रहने से ब्रह्म स्वरूप मुक्त जीव की निष्ठितार्थता कहां रही ? कृतकृत्यता कहां हुई ? •(२) दूसरी हानि यह कि वह ब्रह्म, ईश, जगत्कर्ता जो कुछ कहो मुक्त जीवों को इस जगत्कर्ता स्वरूप हो स्वयं जगत्कर्ता बनने का आप मानते हैं वे अब भी जगत को करते रहते है तो कृतकृत्य कहां हुए ? ०(३) यह भी एक और बाधा खड़ी होती है कि जगत को हीन, मध्यम और उत्कृष्ट रूप में उत्पन्न करने में जगत्कर्ता को यानी जगत्कर्ता स्वरूप बने हुए मुक्त जीवों को इच्छा, संकल्प, द्वेष, मत्सर, इत्यादि होने की आपत्ति आ गिरेगी ! क्यों कि इच्छा संकल्प ही न हो तो जगत का सर्जन क्यों करे? द्वेषादि न हो तो जगत में किसी को न्यून, किसी को मध्यम, किसी को उत्कृष्ट क्यों उत्पन्न करे? बिना इच्छा और द्वेषादि ऐसी विचित्र सर्जन - प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। प्रश्न होगा कि
उपदेश एवं कल्याण करने वाले अर्हत्प्रभु में इच्छा-द्वेषादि की आपत्ति क्यों नहीं ?
यहां तत्त्व समझिए । अर्हद् भगवान् वीतराग सर्वज्ञ हुए हैं फिर भी उन्हें तीर्थंकर नामकर्म नाम के पुण्यकर्म का बन्धन अब भी लगा है, इसके फलभोग के जरिए, बिना इच्छा किये भी, देशना प्रवृत्ति करनी होती है। लेकिन आप तो जगत्कर्ता को कर्म रहित, शुद्ध-बुद्ध मुक्त मानते हैं, तो जगत्सर्जन की प्रवृत्ति में उन्हें कर्म की
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