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२६. वियदृछउमाणं. (ल० - आजीविकमतनिरासे छद्म किं.-) एतेप्याजीविकनयमतानुसारिभिर्गोशाल (प्र० - ....गोशालक) शिष्यैस्तत्त्वतः खल्वव्यावृत्तच्छद्मान एवेष्यन्ते 'तीर्थनिकारदर्शनादागच्छन्ती' ति वचनात् । एतन्निवृत्त्यर्थमाह वियदृच्छउमाणं' - व्यावृत्तच्छोभ्यः । छादयतीति छद्म घातिकाभिधीयते ज्ञानावरणादि, तद्बन्धयोग्यतालक्षणश्च भवाधिकार इति, असत्यस्मिन्कर्मयोगाभावात् । अत एवाहुरपरे 'असहजाऽविद्ये 'ति (प्र०..सहजा विद्येति)। (प्र०... एव) व्यावृत्तं छद्म येषां, ते तथाविधा इति विग्रहः ।
(पं० -) 'तद्वन्धे'त्यादि, तस्य = ज्ञानावरणादिकर्मणो, बन्धयोग्यता = कषाययोगप्रवृत्तिरूपा, लक्षणं = स्वभावो, यस्य स तथा । चकारः समुच्चये भिन्नक्रमश्च । ततो भवाधिकारश्च छद्मकारणत्वाच्छयोच्यते। कुत इत्याह 'असती' त्यादि, सुगमं चैतद् । 'अत एव' = भवाधिकाराभावे कर्मयोगाभावादेव, 'आहुः' = ब्रुवते, 'अपरे' = तीर्थ्याः, 'असहजा' = जीवेनासहभाविनी, जीवस्वभावो न भवतीत्यर्थः, 'अविद्या' = कर्मकृतो बुद्धिविपर्यासः, कर्मव्यावृत्तौ तव्यावृत्तेः । 'इति' = एवं कार्यकारणरूपं, 'व्यावृत्तं छद्म येषामित्यादि सुगमं चैतत् । नवरं,
किस किस प्रकार का होता है उसका ज्ञान अगर न हो, तब सत्य का यथास्थित ज्ञान कैसे हो सकेगा? असत्य को विस्तृत रूप से न जानने के कारण शायद किसी असत्य को ही सत्य मान बेठेगा! और मैं सत्य कहता हूं ऐसा मान कर असत्य भाषण में ही प्रवृत्त होगा। इस प्रकार, हिंसा के क्या क्या विविध स्वरूप हैं, हिंसा के विषयभूत कितने कितने प्रकार के और किस किस स्वरूपवाले जीव होते हैं, हिंसा के कौन कौन शस्त्र होते हैं, इत्यादि हेय हिंसा के बारे में संपूर्ण ज्ञान न हो तब उपादेय अहिंसा का संपूर्ण ज्ञान और पालन कैसे हो सकेगा? एवं इष्ट तत्त्व में 'ऐसा ऐसा शुभ आशय-अध्यवसाय, एवं शुभ भावना-ध्यान करना, अमुक अमुक प्रकार के द्रव्यों का, क्षेत्रका, कालका एवं शमदमादि भावों का आलंबन करना,' - इतना ही आयेगा, किन्तु किस किस प्रकार के असत् आशय विचारणा - वासनादि का त्याग करना, एवं कौन कौन अयोग्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावों का आलंबन, संसर्ग न करना, इसका ज्ञान न रहने से संपूर्ण मोक्ष-साधना का पुरुषार्थ, कि जो प्रवृत्ति-निवृत्ति उभय-संबन्धी है वह, कहां से हो सकेगा?
तात्पर्य, परमात्मा स्वयं सर्व ज्ञेयों के ज्ञान विना लोगों को हेय-उपादयों का यथार्थ और परिपूर्ण बोध कहां से ही करा सकेंगे? कहां से हेय से निवर्त्तन और उपादेय में प्रवर्तन के रूप में परोपकार कर सकेंगे? यह वस्तु सूक्ष्म द्रष्टि से विचारणा के योग्य है।
___ यहां 'अप्पडिहयवरनाणदंसण'... इत्यादि में दर्शन नहीं किन्तु ज्ञान पहला लिया इसका कारण यह है कि आत्मा को कर्मनाश के फलरूप में जो जो लब्धि प्राप्त होती हैं वे सभी साकार उपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग में वर्तमान आत्मा को प्राप्त होती हैं किन्तु निराकार अर्थात् दर्शन के उपयोग में रहे हुए को नहीं । दर्शन में वस्तु का बोध होता है लेकिन सामान्य रूप से, इसलिए वह आकार रहित है, निराकार है, और ज्ञान वस्तु को विशेषरूप से ग्रहण करता है, इसलिए वह आकारयुक्त यानी साकार होता है। जब आत्मा साकार अवस्थामें होती है तभी लब्धियां उत्पन्न होती है; तो केवलज्ञान स्वरूप लब्धि भी साकार उपयोग में उत्पन्न होगी। इसलिए यहां सूत्र में ज्ञान पहला गृहीत किया गया। इस प्रकार 'अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं' सूत्रकी व्याख्या हुई ।। २५ ॥
२६. वियट्टछउमाणं (छद्म से सर्वथा रहित को) आजीविकमते परमात्मा में घाती कर्म रू प छद्म :
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