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(ल० - मोक्षानिवृत्त्यसंभवः भव्यानुच्छेदश्च - ) नाक्षीणे संसारेऽपवर्गः। क्षीणे च जन्मपरिग्रह इत्यसत्, हेत्वभावेन सदा तदापत्तेः । न तीर्थनिकारो हेतुः, अविद्याऽभावेन तत्संभवाभावात्, तद्भावे च छद्मस्थास्ते, कुतस्तेषां केवलमपवर्गो वेति भावनीयमेतत् । न चान्यथा भव्योच्छेदेन संसारशून्यतेत्यसदालम्बनं ग्राह्यम्, आनन्त्येन भव्योच्छेदासिद्धेः, अनन्तानन्तकस्यानुच्छेदरू पत्वाद् अन्यथा सकलमुक्तिभावेनेष्टसंसारिवदूपचरितसंसारभाजः सर्वसंसारिण इति बलादापद्यते, अनिष्टं चैतदिति । व्यावत्तच्छद्मान इति ।२६। एवमप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरत्वेन व्यावत्तच्छातया चैतद्रपत्वात स्तोतव्यसम्पद एव सकारणा स्वरूपसम्पदिति । ७. संपत् ।
(पं० -) 'न चान्यथेति, न च = नैव, अन्यथा = मोक्षात्पुनरिहागमनाभावे । 'इष्टसंसारिवदिति = मोक्षव्यावृत्तविवक्षितगोशालकादिसंसारिवत् ।
अब 'वियट्टछउमाणं' पदकी व्याख्या । गोशालक के शिष्य जो 'आजीविक नाम के नयमत के अनुसरण करने वाले हैं; वे मानते हैं कि 'परमात्मा परमार्थ से छद्म रहित नहीं होते हैं, क्यों कि वे धर्मतीर्थ का विप्लव देख कर यहां आते हैं, ऐसा शास्त्रवचन है। इससे सूचित होता है कि यहां आना, तीर्थरक्षार्थ देह धारण कर यत्न करना, यह बिना छद्म नहीं हो सकता है, तो परमात्मा सर्वथा छद्मशून्य नहीं होता है।'
छद्म दो प्रकार के : सूत्र का अर्थ :
इस मत का निरसन करने के लिए कहा 'वियट्टछउमाणं', छद्म से सर्वथा रहित अरहंत परमात्मा को मेरा नमस्कार हो । छद्म का अर्थ है जो छादन करे; ऐसा है ज्ञानावरणादि घाती कर्म और भवाधिकार । (१) ज्ञानावरणादि कर्म छद्म इसलिए है कि वे आत्मा में ज्ञानादि गुणों का आच्छादन कर देते हैं। ज्ञानावरण कर्म ज्ञान का, दर्शनावरण कर्म दर्शन का, मोहनीय कर्म सम्यग्दृष्टि और वीतरागता का, एवं अन्तराय कर्म वीर्यादि लब्धियों का आच्छादन करते हैं, इसी लिए वे छद्म एवं घाती कर्म भी कहलाते हैं। (२) भवाधिकार यह छद्म इसलिए है कि वह है कर्मबन्धन की योग्यता स्वरूप । ऐसी योग्यता और कोई चीज नहीं, मात्र क्रोधादि कषायप्रवृत्ति और मन-वचन-कायादि योगों की प्रवृत्ति ही है । तो ये प्रवृत्तियां कर्म रूप छद्म के कारण होने के नाते छद्म हैं । तो ऐसी प्रवृत्ति स्वरूप योग्यता यानी भवाधिकार भी छद्म हुआ । कषाययोग-प्रवृत्ति रूप भवाधिकार के बजाय कर्मों का आत्मा के साथ संबन्ध नहीं हो सकता है। इसलिए अन्य दर्शन वाले भी कहते हैं कि 'सहजा विद्या' 'असहजा अविद्या,' अर्थात् तात्त्विक ज्ञान यह जीव का स्वभाव है, सहज स्वरूप है:
और कर्मकृत बुद्धि-विपर्यास जीव का असली स्वभाव नहीं है, जीववस्तु के साथ ही रहने वाला धर्म नहीं है, क्यों कि कर्म की निवृत्ति होने पर उसकी निवृत्ति हो जाती है। यदि जीव का वह स्वभाव हो तो जीव रहते हुए उसकी निवृत्ति कैसे हो सके ? तात्पर्य, कर्म और अविद्या का कार्यकारण-भाव है; तो कर्मरूप छद्म अनिवार्य है। अत: निवृत्त हुआ है छद्म जिनका, वे व्यावृत्तछद्म - "वियट्टछउम' हुए । यह 'वियट्टछउम' यानी व्यावृत्तछदा इस समासपद का विग्रह हुआ।
आजीविकमत का खंडन: कैवल्य-मोक्ष का असंभव :
अब आजीविक जो मानते हैं कि परमात्मा से छद्म यानी घाती कर्मों का आत्यन्तिक उच्छेद नहीं हो सकता है, यह मत इस लिए यथार्थ नहीं है, कि - यदि परमात्मा का संसार क्षीण नहीं है तो उनका मोक्ष भी नहीं
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