________________
च्छेदेन तदन्तहेतुत्वाच्चतुरन्तम् चतुर्भिर्वाऽन्तो यस्मिंस्तच्चतुरन्तं, कैश्चतुर्भिः ? दान शील - तपो भावनारव्यैध्दमैः, अन्तः प्रक्रमाद् भवान्तोऽभिगृह्यते, चक्रमिव चक्रमतिरौद्रमहामिथ्यात्वादिलक्षण भावशत्रुलवनात् । तथा च लूयन्त एवानेन भावशत्रवो मिथ्यात्वादय इति प्रतीतं, दानाद्यभ्या सादाग्रहनिवृत्वादिसिद्धेः, महात्मनां स्वानुभवसिद्धमेतत् । (प्र०. महासत्त्वानामनुभवसिद्धमेतत्)
(पं०-) ‘आग्रहनिवृत्त्यादिसिद्धे' रिति, आग्रहो मूर्च्छा, लुब्धिरिति पर्याया:; ततो विहितदानशील तपोभावनाभ्यासपरायणस्य पुंसः, 'आग्रहस्य' = मूर्च्छाया, 'निवृत्ति: ' = उपरम:, 'आदि' शब्दाद् यथासम्भवं शेषदोषनिवृत्तिग्रहः तस्याः सिद्धेः = भावात् ।
-
( ल० - ) एतेन च वर्त्तन्ते भगवन्तः, तथाभव्यत्वनियोगतो वरबोधिलाभादारभ्य तथा तथौचित्येन आसिद्धिप्राप्तेः एवमेव वर्त्तनादिति । तदेवमेतेन वर्त्तितुं शीला धर्म्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिनः ॥ २४ ॥
एवं धर्म्मदत्व - धर्म्मदेशकत्व - धर्म्मनायकत्व - धर्म्मसारथित्व - धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तित्वैविशेषोपयोगसिद्धेः स्तोतव्यसम्पद एव विशेषेणोपयोगसम्पद इति ॥ ६ ॥
-
संसार का अन्त हो जाता है । चारित्रधर्म में श्रेष्ठ दान अभयदानादि, श्रेष्ठ शील महाव्रत, श्रेष्ठ तप अनशनादि एवं प्रायश्चित्तादि; और श्रेष्ठ भावना कर के सम्यग्दर्शनादि और अनित्यादि की भावना, एवं सत्त्वतुलना, तपस्तुलना, एकत्वतुलना वगैरह पंचतुलनादि भावना की आराधना की जाती है; अत: चारित्रके चार दानादि धर्मों से संसार अन्त होने की वजह वह चतुरन्त कहा गया ।
Jain Education International
धर्म यह चक्रशस्त्र कैसे ? यहां धर्मको वर चतुरत्न चक्र कहा, इसमें 'चक्र' इसलिए कि चक्रवर्ती राजा के शत्रुनाशक चक्र नामक शस्त्र की तरह महामिथ्यात्वादि स्वरूप अति रौद्र भावशत्रुओं को वह काट देता हैं। प्रसिद्ध है कि जिस प्रकार षट् खण्ड पृथ्वी के विजेता चक्रवर्ती के चक्ररत्न से बाह्य शत्रुओं का उच्छेद हो जाता है, इस प्रकार चारित्र अन्तर्गत दानादि धर्मों से मिथ्यात्व-राग-द्वेषादि आभ्यन्तर यानी भाव शत्रुओं का उच्छेद हो जाता है, इसलिए धर्म यह एक प्रकार का चक्रशस्त्र हुआ ।
प्र० - दानादि धर्मों से मिथ्यात्वादि का नाश कैसे होगा ?
उ० - दानादि धर्मों के अभ्यास से आग्रह यानी मूर्च्छा एवं लोभ का नाश और दूसरे दोषों का नाश होने से मिथ्यात्व - राग-द्वेषादि नष्ट हो जाएँगे। जिन महासात्त्विक आत्माओं ने दान, शील, तप एवं भावना धर्मों के बहु अभ्यास किया है; उन्हें यह स्वानुभवसिद्ध है कि उस अभ्यास से मूर्च्छा आदि का ह्रास बन आता है। सहज है कि दानधर्म के पुनः पुनः सेवन से मूर्च्छा का नाश हो जाए, शीलधर्म के बार बार सेवन में सम्यक्त्वव्रत एवं दर्शनाचार - जिनभक्ति - साधुसेवा इत्यादि से मिथ्यात्व का नाश, अहिंसा व्रत से क्रोध - हिंसादि का नाश सत्यव्रत से असत्यवादिता-अभिमान-मायादि का नाश, अचौर्यव्रत से अनीति-कपटादि का नाश, ब्रह्मचर्य व्रत से विषयासक्ति-दुराचार-कामवासनादि का विध्वंस, और धनपरिग्रहत्याग के व्रत से लोभ का ह्रास हो जाए. विविध तपधर्म के बार बार सेवन से ईच्छानिरोध होने द्वारा मूर्च्छा, लोभ, राग, द्वेषादि का नाश हो जाए, और भावनाधर्म में अनित्यता, धर्मस्वाख्यात, आदि के अभ्यास से मिथ्यात्व और रागादि दोष नष्ट हो जाए। ये मिथ्यात्वादि आत्मा के भावशत्रु हैं, आभ्यन्तर शत्रु हैं; क्यों कि वे आत्मा को दुर्गतिपरंपरा में दुःसह्य दु:ख देने वाले होते हैं। अज्ञान मूढ आत्मा बाह्य शत्रु को शत्रु समझ कर इसका तो निवारण करने में यत्नशील रहता हैं, लेकिन आभ्यन्तर शत्रुगणको न तो शत्रु समझता है, न उसके नाश में कोई यत्न करता; वरन् उसकी संगति में रह कर संसार में दीर्घ काल तक
१८०
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org