________________
धर्मचक्रं चतुरन्तं कथम् ? ) चत्वारो गतिविशेषाः नारकतिर्यग्नरामरलक्षणाः । तदु
शुद्धि के साथ जीव आदि तत्त्व और सिद्धान्त इस प्रकार के कहे गए हों कि जो बंध मोक्ष आदि अवस्था, गुण-गुणि अवस्था, कार्य-कारण व्यवस्था, इत्यादि को प्रतिकूल नहीं किन्तु अनुकूल हो, वह धर्म तापपरीक्षा में उत्तीर्ण है। इन तीनों ही परीक्षाओं में जो धर्म उत्तीर्ण है उसी में धर्मपन हो सकता है, अन्य में नहीं। उदाहरणार्थ, जिस धर्म में हिंसादि का निषेध एवं योग का विधान तो किया, लेकिन बाह्य अनुष्ठान ऐसा बताया कि 'अरण्य में जाकर पंचाग्नि तप तपना'; अब इस में काष्ठ, अग्नि वगैरह का परिग्रह करना होगा, एवं सूक्ष्म जीवों की हिंसा होगी, अत: वहां हिंसा, परिग्रह इत्यादि के निषेध के साथ बाध होगा, तो वह धर्म छेद- परीक्षाशुद्ध कहां हुआ ? इस प्रकार, जहां एकान्त धर्म वाली तत्त्वव्यवस्था है वहां बंध- मोक्ष अवस्था की संगति नहीं हो सकेगी, क्योंकि जीवतत्त्व अगर एकान्त नित्य है तो इसमें परिवर्तन न होने की वजह बद्ध या मुक्त कैसे बन सकेगा ? एवं एकान्त अनित्य मानें यानी क्षणिक मानें तो दूसरी क्षण में वह जीव सर्वथा नष्ट हो जाने से बन्ध-मोक्ष किसका ? यह तो नित्यानित्य वगैरह अनेकान्त सिद्धान्त वाली तत्त्व व्यवस्था एवं हिंसादि से मुक्त आचार- अनुष्ठान जिस धर्म में हो वही श्रेष्ठ धर्म होगा । जिनोक्तधर्म ऐसा है ।
( ल०
-
धर्मचक्र यह चतुरन्त ( चाउरंत) एक प्रकार : से :
एवं जिनोक्त धर्म चतुरन्त है । 'चतुरन्त' के दो अर्थ होते हैं, - १. चार का अन्त करने से चतुरन्त के हेतु होने द्वारा चतुरन्त, २. चार से अन्त है जिसमें वह चतुरन्त । (१) पहले अर्थ में 'चार' कर के संसार में परिभ्रमण की नारक, तिर्यग्, मनुष्य एवं देव स्वरूप चार गतिविशेष लेना । चारित्रधर्म उन चारों का उच्छेद करने द्वारा अन्त करने में कारण हुआ, इस लिए वह 'चतुरन्त' कहलाता है। यहां प्रश्न होगा कि तब तो वह चतुरन्त का कारण कहलाएगा, चतुरन्त किस प्रकार ? किन्तु कारण में कार्यका उपचार होता है, - इस न्याय से 'चतुरन्त' कार्य का कारणभूत धर्म भी चतुरन्त कहलाया नारक यानी नरकगति का भव तिर्यग् अर्थात् एकेन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय पशु-पक्षी आदि के भव, एवं मनुष्य और देव का भव, इन सबों में परिभ्रमण कर्मबंधन से होता है । विविध भवों में जीव का परिभ्रमण अनंतानंत पुद्गलपरावर्त काल से चला आ रहा है, क्यों कि कारणभूत कर्मबंधन इतने काल से कई पापों से होते रहे हैं। सत् चारित्रधर्म - यही एक चीज है जिससे नये कर्मबंधन रूक जाते हैं और पुराणे कर्मबंधन तूट जाते हैं; क्यों कि उनके कारणभूत मिथ्यात्वयुक्त अचारित्र सच्चारित्र से निवारित होता है, और सच्चारित्र के अन्तर्गत बारह प्रकार के बाह्याभ्यन्तर तप में कर्मक्षय करने की प्रबल ताकत है। वहां अन्त में जा कर चारित्रधर्म ही सर्व कर्मों के क्षय करवा कर नारकादि चारों गति का पर्यवसान ला देता है । अत: धर्म चतुर्गति का अन्त करनेवाला यानी चतुरन्त हुआ ।
धर्मचक्र यह चतुरन्त दूसरे प्रकार से :
'चतुरन्त' का दूसरा अर्थ है चारों से अन्त है जिसमें यह । 'चारों' कर के दान, शील, तप और भावना नामक धर्मोंका ग्रहण किया जाता है। इनसे अन्त यानी संसार की समाप्ति होती है जिसमें, ऐसा चारित्रधर्म चतुरन्त हुआ । यह भी सयुक्तिक है। संसार आहार-विषय-परिग्रह - निद्रा नामकी चार संज्ञाओं से पुष्ट रहा है। वहां दानधर्म परिग्रहसंज्ञा का, शीलधर्म विषयसंज्ञा का, तपधर्म आहारसंज्ञा का, एवं भावनाधर्म निद्रासंज्ञा यानी भावनिद्रा का नाश कर सकता है। इस प्रकार दानादि धर्मों से संसारहेतुभूत आहारादि संज्ञाओ का नाश होने से
१७९
Jain Education International
-
-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org