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क्षणमात्रमवस्थितोऽसावश्वः । तदनु पुनर्द्धर्मश्रवणविश्राणितश्रवणोपयोगः समागतः समवसरणतोरणान्तिकं, तत्र चापूर्वप्रमोदरसमनुभवन् भूमिन्यस्तजानुयुगलो गलन्निखिलाशुद्धकलिमलः (प्र..... कलमलः) कथयन्निव निजमानसविशदवासनां शिरसाऽभिवन्द्य भगवन्तं तथास्थित एवासितुमारब्धवान्, ततस्तदेवंविधमश्वविलसितं विलोक्य विस्मितोऽहं कदाचिददृष्टपूर्वाश्चर्यपूर्यमाणमानस: समागतो भगवत्समीपमिति । ततः कथयतु मथितमिथ्यात्वो भगवान् किमेतदिति' । भगवता भणितं 'सौम्य ! समाकर्णय - समस्ति समस्तमेदिनीपद्मासद्मभूतं पद्मिनिखेटं नाम नगरं, तत्राभ्यस्तजिनधर्मो जिनधर्मनामधेयः श्रेष्ठश्री (प्र.... श्रेष्टः श्री) सञ्चयसमाश्रयः श्रेष्ठी वसति स्म, तथाऽपरः सागरदत्ताभिधानः प्रभूतधननिधानं निखिलजनप्रधानं जिनधर्म श्रावक परममित्रं दीनानाथादिदयादानपरायणस्तस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठी तिष्ठति स्म; स च प्रतिदिनं जिनधर्मश्रावकसमेतो याति जिनालयं, पर्युपास्ते पञ्चप्रकाराचारधारिणः श्रमणान् । अन्यदा तच्चरणान्तिके धर्ममाकर्णयन्निमां गाथामाकर्णयाञ्चकार, यथा- "जो कारवेइ पडिमं, जिणाण जियरागदोसमोहाणं । सो पावइ अन्नभवे भवमहणं धम्मवररयणं ॥ १ ॥" अवगतश्चानेनास्या भावार्थो भवितव्यतानियोगतः, समारोपितश्चेतसि, गृहीतः परमार्थबुद्ध्या, निवेदितः स्वाभिप्राय: श्रावकाय, कृता तेनापि तदभिप्रायपुष्टिः । तदनुकारितवानसौ सकलकल्याणकारिणी कल्याणमयीं जिनपतिप्रतिमां, प्रतिष्ठापयामास स महता विभवेन । तेन च सागरदत्तश्रेष्ठिना पूर्वमेव नगरबहिष्कारितं रुद्रायतनम् । अन्यदा तत्र पवित्रकारोपणदिने झटधारिणः
भगवान ने उत्तर देते हुए कहा, "हे सौम्य ! सुन । पद्मिनीखेट नामक एक नगर है। वह सकल पृथ्वी की शोभा का स्थानभूत है । वहां 'जिनधर्म' नामका एक सेठ रहता था। उसे जैन धर्म का बहुत अभ्यास था और अच्छा धनसंचय आश्रित हुआ था। उसी नगर में एक दूसरा सागरदत्त नामक सेठ रहता था। वह अपार धन का एक निधि-सा था, जनसमाज में प्रधान पुरुष था, और 'जिनधर्म' श्रावक का परम मित्र था। दीन, अनाथ आदि के प्रति दया करना, दान करना, उस में वह तत्पर रहता था। हमेशा वह जिनधर्मश्रावक के साथ जिनमन्दिर में जाता था, और ज्ञानाचारादि पांच प्रकार के आचार वाले जैन श्रमणों की देशनाश्रवण आदि उपासना भी करता था। एक समय श्रमणों के चरणसमीप धर्म का श्रवण करते हुए यह गाथा सुनने में आई, -
'जो कारवेइ पडिमं जिणाण जियरागदोसमोहाणं ।
सो पावेई अन्नभवे भवमहणं धम्मवररयणं ।। -अर्थात् जो पुरुष राग-द्वेष-मोह से विनिर्मुक्त तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा कराए, वह दूसरे जन्म में उत्तम धर्मरत्न प्राप्त करता है, और इससे संसार भ्रमण का अन्त होता है।' (वीतराग परमात्मा की प्रतिमा कराने में रागद्वेषोच्छेदक धर्म के प्रति आकर्षणादि रूप धर्मवीज का वपन होता है, और उस के उगने से जन्मान्तर में धर्म प्राप्त होता है। इस रागद्वेषोच्छेदक धर्म के द्वारा संसार के बीजभूत रागद्वेष कट जाने से संसार का अन्त होना युक्तियुक्त है।) भवितव्यतावश सागरदत्त श्रेष्ठी ने इस गाथा का भावार्थ समझ लिया, चित्त में आरूढ कर दिया,
और परमार्थ बुद्धि से गृहीत कर रखा । उसने अपना अभिप्राय श्रावक से निवेदित किया, और श्रावक ने उसकी पृष्टि की । इसके बाद समस्त कल्याणों को करनेवाली कल्याणमय जिनेन्द्रप्रतिमा उसके द्वारा बनवाई गई, एवं बडे वैभव से प्रतिष्ठापित की गई। पहले उस सागरदत्त सेठ ने नगर के बाहर शिव का एक मन्दिर बनवाया था। एक वक्त वहां घृतारोपण के दिन जटाधारी एवं शठ प्रकृतिवाले वैरागी लोग शिवलिङ्ग को घृत से भरने कि लिए घी से भरे हुए घड़े मठो से बाहर निकालने लगे ! लेकिन घड़ों के निचले भाग में बहुत-सी घीमेलों (घी की
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