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(ल०-पालनदमनयोः सिद्धिः-) एतेन पालनाऽयोगः प्रत्युक्तः सम्यक्प्रवर्तनस्य निर्वहणफलत्वात् । नान्यथा सम्यक्त्वमिति समयविदः । एवं दमनयोगेन । दान्तो ह्येवं धर्मः कर्मवशितया कृतोऽव्यभिचारी अनिवर्त्तकभावेन नियुक्तः स्वकार्ये स्वाङ्गोपचयकारितयानीतः स्वात्मीभावं, तत्प्रकर्षस्यात्मरूपत्वेन।
(पं०-) इत्थं प्रथमहेतुसिद्धिमभिधाय द्वितीयसिद्ध्यर्थमाह - 'एतेन' = सम्यक्प्रवर्तनयोगसाधनेन, किमित्याह पालनाऽयोगः' = पालनस्यायोगः अघटने, 'प्रत्युक्तो = निराकृतः । कुत इत्याह सम्यक्प्रवर्तनस्य' = उक्तरुपस्य, 'निर्वहणफलत्वात्' = पालनफलत्वात् । अथ कथमयं नियमो यदुत पालनफलमेव सम्यक्प्रवर्तनमित्याह 'न' = नैव, 'अन्यथा' = पालनाऽभावे, 'सम्यक्त्वं' = सम्यग्भावः प्रवर्तनस्य, 'इति' = एवं, 'समयविदः' = प्रवचनवेदिनो वदन्ति । अथ तृतीयहेतुसिद्धिमाह 'एवमिति' = यथा सम्यक्प्रवर्त्तनपालनाख्यहेतुद्वयाद्धर्मसारथित्वं तथा दमनयोगेनापीत्यर्थो, 'दमनयोगेन' = सर्वथा स्वायत्तीकरणेन । अमुमेव साधयन्नाह 'दान्तो' वशीकृतो 'हि' स्फुटम्, 'एवं' वक्ष्यमाणेन अव्यभिचारीकरणस्वकार्यनियोगस्वात्मीभावनयनरूपप्रकारत्रयेण, 'धर्मः', कयेत्याह 'कर्मवशितया, कर्म चारित्रमोहादि, वशि वश्यम् अबाधकत्वेन, येषां ते तथा, तद्भावस्तत्ता, तया । तदेव प्रकारत्रयमाह 'कृतो' = विहितः, 'अव्यभिचारी' अविसंवादकः । कथमित्याह 'अनिवर्त्तकभावेन' आफलप्राप्तेरनुपरमस्वभावेन, 'नियुक्तो' = व्यापारितः, 'स्वकार्ये' कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणे, कयेत्याह 'स्वाङ्गोपचयकारितया' स्वाङ्गाना' = मनुजत्वार्यदेशोत्पन्नत्वादीनामधिकृतधर्मलाभहेतुनाम्, उपचयः = प्रकर्षः, तत्कारितया, 'नीतः' = प्रापितः 'स्वात्मीभावं' निजस्वभावरूपं, कथमित्याह 'तत्प्रकर्षस्य' = धर्मप्रकर्षस्य, यथाख्यातचारित्रतया, 'आत्मरू पत्वेन - जीवस्वभावत्वेन, इति ।
गांभीर्य होने का कारण यह है कि फल को अवश्य उत्पन्न करे ऐसे सुन्दर गुरु आदि 'साधुसहकारी' यानी सहायक सामग्री की उन्हें प्राप्ति हुइ है। ऐसे विशिष्ट निमित्तों के सहयोग से गांभीर्य प्राप्त होना संभवित है। पूछिए, ऐसा सहयोग उन्हें कैसे मिला? उत्तर यह है कि वहां 'अनुबन्ध', यानी उत्तरोत्तर अधिक साधना-सामग्री मिलती ही रहे ऐसी ताकत मुख्य रूप से कार्य करती है। जिसे यह प्राप्त नहीं, उसे एकाद्य वक्त सामग्री मिल भी जाए, लेकिन आगे उसकी धारा न चलने से उत्तरोत्तर सफल सुन्दर सामग्री एवं सर्वोच्च कल्याण शक्ति का लाभ नहीं हो सकता। शायद आप पूछेगे कि, ऐसा प्रधान अनुबन्ध किस आधार पर उन्हें प्राप्त होता है। उत्तर में, ‘अतिचारभीरुता' के आधार पर वह समझना । धर्म साधना करते करते दोष का भय बना रहने से ही दोष छू न पावे ऐसी साधना की जाती है। तभी वह अनुबन्ध वाली होती है। धर्म साधना की सामग्री तो मिली, किन्तु साधना करते करते कोई दोष तो नहीं लग रहा है इसका पक्का भय होना जरुरी है जिस से दोष का सेवन न हो पावे। दोष लगाने से साधना-सामग्री अनुबन्धवाली नहीं हो सकती है; फलतः इससे फिर फिर बढ़ती साधना-सामग्री मिले और फलतः उच्चत्तम कल्याणशक्ति प्राप्त होने द्वारा धर्म का सम्यक्प्रवर्तन हो, वैसा नहीं होता है।
पालन की सिद्धि :
इस प्रकार सारथिपन के प्रथम हेतु सम्यक्प्रवतन की सिद्धि दिखला कर, अब द्वितीय हेतु पालन की सिद्धि करने के लिए कहते है कि, अर्हत्प्रभु में जब 'सम्यक्प्रवर्तन' का सम्बन्ध सिद्ध हुआ, तब ‘पालन' के सम्बन्ध का अभाव तो सहज ही निषिद्ध होता जाता है। इसका कारण यह है कि पूर्वोक्त स्वरूप वाले सम्यक्
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