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(ल० - ) भावधर्म्माप्तौ हि भवत्येवैतदेवं तदाद्यस्थानस्याप्येवंप्रवृत्तेरवन्ध्यबीजत्वात् । सुसंवृतकाञ्चनरत्नकरण्डकप्राप्तितुल्या हि प्रथमधर्म्मस्थानप्राप्तिरित्यन्यैरप्यभ्युपगमात् । तदेवं धर्म्मस्य सारथ धर्म्मसारथयः ॥ २३ ॥
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(पं०-) आह-इत्थं धर्म्मसारथित्वभवने को हेतुरित्याह - 'भावधर्म्माप्तौ ' = क्षायोपशमिकादिधर्म्मलाभे, 'ही:' = स्फुटं, 'भवत्येव' = न न भवति, 'एतत्' = धर्म्मसारथित्वं, 'एवं' = सम्यक्प्रवर्तनयोगादिप्रकारेण । कुत इत्याह 'तदाद्यस्थानस्यापि ' धर्म्मप्रशंसादिकालभाविनो धर्म्मविशेषस्यापि किं पुनर्वरबोधेः प्राप्तौ, ' एवंप्रवृत्तेः' धर्म्मसारथी (प्र०. थित्व ) करणेन भगवतां प्रवृत्तेः कुत इत्याह 'अवन्ध्यबीजत्वात्' अनुपहतशक्तिकारणत्वाद्धर्मसारथित्वं प्रति । न हि सर्वथा कारणेऽसत्कार्यमुत्पद्यत इति वस्तुव्यवस्था । परमतेनापि समर्थयन्नाह, 'सुसंवृते 'त्यादि, सुसंवृत्तः = सर्वथानुद्घाटितः काञ्चनस्य रत्नानां च यः 'करण्डको' = भाजनविशेषः, तत्प्राप्तितुल्या, 'हि:' = यस्मात् 'प्रथमधर्म्मस्थानप्राप्ति: ' - धर्म्मप्रशंसादिरूपा । यथा हि कश्चित्क्वचिदनुद्घाटितं काञ्चनरत्नकरण्डकमवाप्नुवंस्तदन्तर्गतं काञ्चनादि वस्तु विशेषतोऽनवबुध्यमानोऽपि लभते, एवं भगवन्तोऽपि प्रथमधर्म्मस्थानावाप्तौ मोक्षावसानां कल्याणसम्पदं तदनवबोधेऽपि लभन्ते एव तदवन्ध्यहेतुकत्वात् तस्याः । ‘इति' = इत्येवम्, ‘अन्यैरपि' = बौद्धैरभ्युपगमात् ।
प्रवर्तन का कार्य ही पालन रूप हो जाता है। शायद प्रश्न होगा कि यह नियम कैसे कि सम्यक्प्रवर्तन का कार्य ही पालन है ? किन्तु उत्तर यह है कि फलरूप में अगर पालन निष्पन्न न हो, तब प्रवर्तन में सम्यगुरूपता हो ही नहीं सकती । तात्पर्य, धर्म प्रमुख किसी वस्तु का सम्यग् रूप से प्रवर्तन किया, तो उस धर्मादि का पालन फलित होना ही चाहिए, इस प्रकार जिनप्रवचन यानी जैन आगम के ज्ञाता पुरुष कहते हैं ।
दमन की सिद्धि के ३ हेतु
अब सारथिपन का तीसरा हेतु दमन कैसे यह सिद्ध करते हैं । परमात्मा धर्म का दमन करने से ही अर्थात् धर्म को सर्वथा स्वाधीन करने से ही धर्मसारथि कहलाते हैं । यह इस प्रकार सिद्ध होता है, १. धर्म को अविसंवादी बनाना, २ . स्वीय अन्तिम कार्य पर्यन्त पहुंचे ऐसा करना एवं ३. निज स्वभावरूप कर देना, इन
प्रकार से धर्म का दमन यानी वशीकरण होता है। वशीकरण का मतलब यह है कि धर्म के बाधक चारित्रमोहनीयादि कर्मो को ऐसे वश्य यानी शान्त कर देना, शक्तिहीन कर देना, कि अब वे बिलकुल बाधा न कर सके। यह करने के लिए (१) पहले धर्म को अव्यभिचारी यानी अविसंवादी करना पड़ता है, अविसंवादी अर्थात् अवश्य सफल । इसके लिए (२) धर्मसाधना फलप्राप्ति तक रुके ही नहीं ऐसी विशेषता वाली करनी होती है। एवं, (३) सर्व कर्म-क्षय स्वरूप कार्य के लिए जरुरी मानवभव, आर्य कुल इत्यादि धर्म - अङ्ग (धर्मप्राप्ति के कारण) उत्कृष्ट रूप से प्राप्त करा सके ऐसी धर्मसाधना करते करते धर्म को निज स्वभाव रूप बना देना चाहिए। ऐसा उत्कृष्ट धर्म ‘यथाख्यात चारित्र' धर्म है, अर्थात् वीतराग संयम धर्म है; और वह आत्मा का स्वभाव ही है !
प्रश्न - ऐसा धर्मसारथिपन होने में क्या हेतु है ? इसका कहां से प्रारम्भ है ?
उत्तर जब भावधर्म अर्थात् क्षायोपशमिक धर्म प्राप्त होता है तब सम्यक्प्रवर्तन- पालन- दमन रूप से धर्मसारथिपन निष्पन्न न होवे ऐसा नहीं, वह तो अवश्यमेव होता है। यहां धर्म क्षायोपशमिक कहने से औदयिक धर्म की निरर्थकता बतलाई । अहिंसादि एवं क्षमादि धर्म जब किसी पौद्गलिक लोभ या मानाकांक्षादि वश किये
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