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प्रव्रजिताः पशुपतिलिङ्गपूरणनिमित्तं शठप्रकृतयो मठेभ्यो घृतादिपूर्णकुम्भान्निष्कासयामासुः, तदधोभागे च भूयस्यो घृतपिपीलिकाः पिण्डीभूता भूतवत्यः; तेषु च निष्कास्यमानेषु भूतले ता निपेतुः; ते च ताः पथि पतिताः निर्दयतया मर्दयन्तः सञ्चरन्ति स्म । सोऽपि करुणाईचेतास्तास्तच्चरणचूर्यमाणा वस्त्रप्रान्तेनोत्सारयाञ्चकार; तं चोत्सारयन्तं दृष्ट्वा एकेन जटाधारिणा धर्ममत्सरिणा घृतपिपीलिकापुझं पादेनाक्रम्योपहसितः सागरदत्तः श्रेष्ठी-'अहो श्रेष्ठिन् श्वेताम्बर इव दया (प्र.... जीवदया)परः संवृत्तोऽसि ।' ततोऽसौ वणिक् विलक्षीभूतः किमयमेवमाहेत्यभिधाय तदाचार्यमुखमवालोकत । तेनापि तद्वचनमपाकर्णितम् । ततश्चिन्तितं चतुरचेतसा सागरदत्तेन-न खल्वमीषां मूर्खचक्रवर्तिनां मनसि जीवदया, न प्रशस्ता चेतोवृत्तिः, नापि सुन्दरं धर्मानुष्ठानमिति परिभाव्योपरोधविहिततत्कार्यो विशिष्टवीर्यविरहादनुपार्जितसम्यक्त्वरत्नः प्रवर्तितमहारम्भः समुपार्जितवित्तरक्षणाक्षणिको गृहपुत्रकलत्रादिकृतममत्व: प्रकृत्यैव दानरुचिः प्रचुरद्रविणवाञ्छया 'कदा व्रजति सार्थः ? क्व किं क्रयाणकं क्रीणाति लोकः? कस्मिन्मण्डले कियती भूमिः ? कः क्रयविक्रयकालः ? किं वा वस्तु प्राचुर्येणोपयुज्यते ?' इत्याद्यहर्निशं चिन्तयन्नुपार्जिततिर्यग्गतियोग्यका मृत्वा समुत्पन्नस्तव तुरङ्गतया, स्थापितः (च) स्ववाहनतया । अद्य तु मदीयवचनमाकर्ण्य पूर्वजन्मनिर्मापितार्हत्प्रतिमाप्रभावप्राप्तावन्ध्यबोधिबीजो दादवाप्तं सम्यक्त्वं, भाजनीकृतः खल्वात्मा शिवसुखानामिति । एतत्सम्बोधनार्थं चाहमत्रागतवानिति च भगवानुवाचेति । ततःप्रभृति चाश्वावबोध इति नाम तीर्थं भृगु (प्र....भरु) कच्छं रूढमिति ।।
चिटियों) का पिण्ड लगा हुआ था; वे घड़ों के निकालने के समय जमीन पर गिरने लगी; और उन संन्यासियों ने रास्ते में गिरी हुई उन चीटियों को निर्दयता से कुचलते हुए आना-जाना चालू रखा । यह देख कर सागरदत्त का दिल करुणा से भर गया और वह उनके चरणों से कुचल जाती हुई चीटियों को वस्त्र के छोर से दूर करने लगा। इस प्रकार दूर करते हुए उसको देख कर एक जटाधारी धर्मद्वेषीने घृतचीटियों के पुञ्ज को पैर से कुचल कर सागरदत्त सेठ का इस प्रकार उपहास किया, कि 'अहो, सेठ ! श्वेताम्बर जैन के समान दयातत्पर हो गये!' वह वणिक लज्जित हो गया, और इस प्रकार क्या बोल रहा है' ऐसा कहकर उसने आचार्य के मुख तरफ दृष्टि डाली । किन्तु उसने इसके प्रश्न पर ध्यान नहीं दिया इससे चतुर चित्त वाले सागरदत्त ने सोचा, 'सचमुच इन मूर्खचक्रवर्तियों के चित्त में जीवदया नहीं है, उनमें शुभ मनोवृत्ति नहीं है, एवं उनके पास सुन्दर धर्मानुष्ठान भी नहीं है।' ऐसा मन में तो आया, फिर भी उसने अनुरोध वश उनके कार्य किये और विशिष्ट आत्मवीर्योल्लास प्रगट न कर पाया; परिणामतः वह सम्यग्दर्शन स्वरूप रत्न का उपार्जन न कर सका । दूसरी और वह महान आरम्भ-समारम्भ के कार्यो में प्रवर्तित, और उपार्जित किये धन के रक्षण में व्यग्रचित्त, एवं घर-पुत्र--पत्नी आदि में ममतालु बना रहता था; दानरुचि की प्रकृति वाला था; और बहुत धन की वाञ्छा से 'सार्थ कब जाता है, कहां लोग क्या माल खरीदते हैं, किस देश में कितनी भूमि है, कौन समय क्रय का है कोन विक्रय का, कौनसी वस्तु ज्यादे उपयोग में आती है ?... इत्यादि सोचता रहता था। ऐसी स्थिति में उसने तिर्यञ्च गति के योग्य कर्म का उपार्जन किया, और मरने के बाद, हे राजन् ! वह तेरे अश्वरूप में उत्पन्न हुआ। तूने उसे अपना वाहन कर रखा । आज तो मेरा उपदेश सुन कर. पूर्व जन्म में बनवाई गई जिनप्रतिमा के प्रभाव से प्राप्त किया गया अवंध्य बोधिबीज उसमें उगने से उसने सम्यक्त्वरत्न प्राप्त किया और अपनी आत्मा मोक्षसुख के पात्र बनाई । मैं इसको प्रतिबोध करने के लिए ही यहां आया था।' इस प्रकार भगवान ने कहा। तब से ले कर भृगृकच्छ नगर का 'अश्वावबोध' नाम रूढ़ हुआ।
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