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(ल०)- धर्मविघातानुपपत्तिहेतुचतुष्टयम्-) एवं तद्विघातरहिताः (१) अवन्ध्यपुण्यबीजत्वात्, एतेषां स्वाश्रय (प्र०....स्वाशय) पुष्टमेतत् तथा, (२) अधिकानुपपत्ते: नातोऽधिकं पुण्यं; एवं, (३) पापक्षयभावात्, निर्दग्धमेतत् तथा (४) अहेतुकविघातासिद्धेः, सदासत्त्वादिभावेन । एवं धर्मस्य नायका धर्मनायका इति । २२ ।
(पं०-) अधिकानुपपत्ते रिति,-अधिकपुण्यसम्भवे हीनतरद्विहन्यते (प्र..... हि इतरद्विहन्यते प्र०... हि-इतरद्धिहन्यते) 'सदासत्त्वादिभावेने 'ति, - 'नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावनां कादाचित्कत्वसंभवः ।। १ ॥' इति । अत्र 'तथा' शब्दा ‘एवं' शब्दाश्चानन्तरहेतुना उत्तरहेतोस्तुल्यसाध्यसूचनार्थाः ।
तो वह सदा होना चाहिए, या तो कभी न होना चाहिए । दूसरे शब्दो में कहें तो जब कीसी कारण की अपेक्षा नहीं है तब तो उसका नित्य सत्त्व होगा, या तो सदा ही असत्त्व होगा। पदार्थों का अमुक ही काल में होना यह किसी की अपेक्षा रखने से ही संभवित है। यहां ग्रन्थ में दो 'तथा' शब्द और दो ‘एवं' शब्द, पिछले हेतु के साथ उत्तर हेतु के साध्य की समानता सूचित करने के लिए दिये गये है।
_ 'धर्म' शब्द असल तो 'चारित्र' अर्थ में है, लेकिन यहां, 'धर्म शब्दको इसके फलस्वरूप दो अर्थ में लिया (१) पुण्य, और (२) अज्ञान-रागद्वेषादि पापों का क्षय । न्यायदर्शन आदि आत्मा का धर्म-अधर्म गुण मान कर धर्म का अर्थ शुभ अदृष्ट (भाग्य) यानी पुण्य करते हैं । दूसरा अर्थ सुज्ञेय है क्यों कि चारित्र एवं सभी धर्मक्रियाएँ अज्ञान, राग, द्वेष वगैरह पापों यानी अधर्म का नाश करने के लिए ही विहित हैं। इन दो बातों का अविघात अर्थात् अप्रतिहत पुण्य और अप्रतिहत पापनाश अर्हत् परमात्मा में मिलता हैं। पुण्य अप्रतिहत होने का कारण यह है कि एक तो पुण्य यानी तीर्थंकर नामकर्म के अवन्ध्य बीजभूत विशिष्ट तथाभव्यत्वादि भगवान में आश्रित हो विशिष्ट योगसाधना से पुष्ट हुए हैं; और दुसरा यह कि वह पुण्य इतना उत्कृष्ट है कि और किसी अन्य पुण्य से प्रतिघातयोग्य नहीं है। ऐसे, अप्रतिहत पापनाश इस लिए है कि एक तो अब कोई अज्ञान, राग, द्वेष आदि का लेश भी नहीं रहा है, इतना सर्वोच्च और संपूर्ण केवलज्ञान, वीतरागता वगैरह गुण प्रगट हो चुके हैं; और दूसरा यह कि वे अब अविनाशी रूप में अनंत काल के लिए प्रगट हए हैं क्योंकि उनक अज्ञानादि का अंश एवं अज्ञानादि कराने वाले ज्ञानावरण आदि कर्मो का कोई अंश भी नहीं बचा हैं। कारण न हो तो फिर कार्य कैसे हो? इस प्रकार अरहंतप्रभु धर्म के नायक अर्थात् धर्मनायक है ।। २२ ।।
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