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(ल०- आभासतो बुद्धिगुणवैशिष्ट्यं-) प्रतिगुणमनन्तपापपरमाण्वपगमेनैते इति समयवृद्धाः, तदन्येभ्यस्तत्त्वज्ञानायोगात्, तदाभासतयैतेषां भिन्नजातीयत्वात् बाह्याकृतिसाम्येऽपिफलभेदोपपत्तेः ।
(पं०-) किंविशिष्टा इत्याह 'प्रतिगुणम्' एकैकं शुश्रूषादिकं गुणमपेक्ष्योत्तरोत्तरतो 'अनन्तपापपरमाण्वपगमेन' 'अनन्तानाम्' = अतिबहूनां, 'पापपरमाणूनां' = ज्ञानावरणादिक्लिष्टकम्लॅशलक्षणानाम्, 'अपगमेन' = प्रलयेन, 'एते' = तत्त्वमोचरा शुश्रूषादयः, 'इति' एतत्, 'समयवृद्धाः' = बहुश्रुताः ब्रुवते । कुत एतद् इत्याह 'तदन्येभ्यः' = उक्तविलक्षणहेतुप्रभवेभ्यः, 'तत्त्वज्ञानायोगाद्' = भवनैर्गुण्यादिपरमार्थापरिज्ञानात् । एतदपि कुत इत्याह 'तदाभासतया' = तत्त्वगोचरशुश्रूषादिसदृशतया, 'एतेषां' प्रतिगुणमनन्तपापपरमाण्वपगममन्तरेण जातानां, "भिन्नजातीयत्वाद्' = अन्यजातिस्वभावत्वात् (प्रत्य०..... जातिभवत्वात्) । नन्वाकारसमतायामपि कुत एतदित्याह 'बाह्याकृतिसाम्येऽपि = तत्त्वगोचराणामितरेषां च शुश्रूषादिनां 'फलभेदोपपत्तेः,' फलस्य = भवानुरागस्य तद्विरागस्य च यो भेदः = आत्यन्तिकं वैलक्षण्यं स एव उपपत्तिः= युक्तिः, तस्याः । कथं नाम एकस्वभावेषु द्वयेष्वपि शुश्रूषादिषु बहिराकारसमतायामित्थं फलभेदो युज्यत इति भावः। सकता । नाम से शुश्रूषादि गुण कहलाने पर भी इन से तत्त्वज्ञान नहीं हो सकने का कारण यह है कि प्रतिगुण अनन्तकर्मक्षय हुए बिना पैदा होने वाले वे शुश्रूषादि आभास रूप होते हैं । वे तत्त्वसम्बन्धी सच्चे शुश्रूषादि गुण के समान दिखाई देते हैं इतना ही; लेकिन हैं विलक्षण; क्यों कि वे अन्य जाति के स्वभाव वाले होते हैं।
प्र०-बाह्य आकार तो समान होता है, फिर भी भेद क्यों?
उ०-तत्त्वसम्बन्धी शुश्रूषादि और आभासरूप शुश्रूषादि में, उनके फल में भेद होने से, भेद है। पापक्षय से नहीं हुए ऐसे शुश्रूषादि से फल रूप में संसार का अनुराग श्रद्धा प्रीति बढ़ती है। और सच्चे शुश्रूषादि से फल रूप में संसार के प्रति अनास्था, वैराग्य प्रगट होता है। ऐसी फलकी अत्यन्त विलक्षणता की युक्ति पर दोनों का भेद सिद्ध होता है। अन्यथा एक ही स्वभाव वाले दो प्रकार के शुश्रूषादिओं में बाह्य आकार समान होने पर फल का भेद क्यों होना चाहिए?
आभासरू पशुश्रूषादि का कारण :प्र०-तब तो भव-वैराग्यादि तत्त्व के उद्देश बिना शुश्रूषादि होना ही नहीं चाहिए?
उ०- ऐसा मत कहिए, जगत में अशुभ आशय से असली वस्तु की नकल होती है। अतः आभास रूप विलक्षण शुश्रूषादि होते नहीं है वैसा नहीं, वरन् तत्त्वजिज्ञासा के बदले और भी ऐसी इच्छाएँ हो सकती हैं, जैसे कि लोगों में पूजा-सन्मान की अभिलाषा आदि, जिन के कारण भी शुश्रूषादि होना संभवित है। लेकिन इनमें विलक्षणता इतनी है कि वे शुश्रूषादि तत्त्वजिज्ञासा के बिना होने की वजह अपने कार्यके साधन न होने से परमार्थ स्वरूप यानी तात्त्विक नहीं है। ये स्वार्थ के साधन न होने का कारण यह है कि पूजाभिलाषादि अन्य वस्तु के हेतु से प्रवृत्त वे शुश्रूषादि अत्यन्त बलवान मिथ्यात्व-मोह स्वरूप निद्रा से आक्रांत है; क्यों कि तत्त्वज्ञान से वे दूर हैं। ऐसी हालत में वे स्वार्थ यानी सच्चे तत्त्वज्ञान का साधक कहां से हो सके ? एवं असली शुश्रूषादि भी कैसे कहा जाएँ ?
अन्य दर्शन वालों की सम्मति :इस बात का परमत से भी समर्थन करते हुए कहते हैं कि यह तत्त्वज्ञान के अभाव की वस्तु हमने तो
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