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ल०-धर्मवशीकरणहेतव:- ) एतद्वशिनो भगवन्तः (१) विधिसमासादनेन विधिनाऽयमाप्तो भगवद्भिः; तथा ( २ ) निरतिचारपालनतया, पालितश्चातिचारविरहेण; एवं ( ३ ) यथोचित्तदानतः दत्तश्च यथाभव्यं, तथा ( ४ ) तत्रापेक्षाऽभावेन, नामीषां दाने वचनापेक्षा । १ ।
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(पं० - ) 'एतद्वशिन:' इति, एषः = अधिकृतो धम्र्म्मो, वशीः = वश्यो, येषां ते एतद्वशिन इति । 'विधिसमासादनेने 'ति, विधिसमासादितो ह्यर्थोऽव्यभिचारितया वश्यो भवति, न्यायोपात्तवित्तवद् । 'तत्रे 'ति दाने, 'वचनापेक्षे 'ति, न हि भगवन्तो धर्म्मदाने अन्यमुनय इव पराज्ञामपेक्षन्ते, 'क्षमाश्रमणानां हस्तेन सम्यक्त्वसामायिकमारोपयामी'त्याद्यनुच्चारणात् ।
अर्हत् परमात्मा प्रस्तुत चारित्र धर्म को वश करने वाले हुए हैं, यह चार कारणों से :- (१) विधिपूर्वक प्राप्ति वशीकरण हुआ है। भगवान ने धर्म विधिपूर्वक प्राप्त किया है; और विधिपूर्वक प्राप्त किया पदार्थ अवश्य वश होता है, जैसे कि न्याय-नीति से उपार्जित किया धन अपना वश रहता है, अर्थात् राजकीय दण्ड - आक्रमणका कोई भय उस पर नहीं होता है। विधिपूर्वक प्राप्ति इसलिए कही जाती है कि उन्होंने चारित्रधर्म की सोलह गुणों की योग्यता पूर्वक सर्वपापव्यापार के त्याग की प्रतिज्ञा कर के वह धर्म प्राप्त किया है। तथा ( २ ) निरतिचार पालन करने से वशीकरण हुआ है। भगवान ने चारित्रधर्म में कोई अतिचार यानी दोष न लगा कर उसका पालन किया है, और बिना अपराध पालन करने से ही वस्तु वश होती है। इस प्रकार ( ३ ) यथोचित धर्मदान करने से वशीकरण सिद्ध है। भगवान ने जीवों को योग्यतानुसार धर्म का दान किया है; यह भी धर्म वश करने का सूचक है। वस्तु वश में आये बिना उसका दान नहीं हो सकता। तथा (४) धर्मदान करने में किसी की अपेक्षा न होने से भी उन्हे धर्म का वशीकरण होने का सिद्ध होता है। भगवान को अन्य मुनियों की तरह धर्मदान करने में दूसरों की आज्ञा की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती है। इसलिए वे 'क्षमाश्रमणों (महामुनियों) के हाथों से' ऐसा नहीं बोलते हैं। उदारहणार्थ, मुनियों किसी को सम्यक्त्व- व्रत का दान करता है, तो वे व्रत की क्रिया में बोलेंगे 'खमासमणाणं हत्थेणं सम्मत्तं आरोवेमि' अर्थात् 'महामुनियों के हाथ से मैं तेरे में सम्यक्त्व का आरोपण करता हूं,' तात्पर्य, 'मैं सम्यक्त्वदान उनकी आज्ञा से करता हूं, मेरी स्वतन्त्रता से नहीं' । लेकिन अर्हद् भगवान जब सम्यक्त्वव्रतादिका प्रदान करते हैं तब उन्हें ऐसा बोलना नहीं पड़ता। इससे सूचित होता है कि उन्होंने धर्म को वश किया है। जो वस्तु वश हो उसका विनियोग करने में अपना स्वातन्त्र्य रहता है । इस प्रकार धर्म को वश करने से भगवान धर्मनायक बने हैं। इस से यह भी सूचित होता है कि कोई भी धर्म अगर वश करना है, सिद्ध करना है, तो इसका विधिपूर्वक स्वीकार, निर्दोष पालन, इत्यादि करना चाहिए । १ ।
अर्हद् भगवान द्वारा धर्मोत्तमप्राप्ति यानी प्रधान क्षायिक धर्मकी प्राप्ति कैसे ? : -
अर्हत् परमात्मा धर्म की उत्तम प्राप्ति वाले अर्थात् प्रधान क्षायिक धर्म प्राप्त करनेवाले हुए हैं। प्रधान क्षायिक धर्म इसलिए, कि सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र स्वरूप प्रधान धर्म यो तो आत्म-स्वभावभूत है, लेकिन वे दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय कर्मों से तिरोभूत यानी छीप गये हैं । जब उन कर्मो का अत्यन्त क्षय किया जाता है तब वे क्षायिक रूप से प्रगट होते हैं। क्षय करने के लिए जिन तत्त्वरुचि-सत्सङ्ग-तत्त्व श्रवण और शमसंवेगादि की एवं व्रतग्रहण-पंचाचारपालनादि की साधनाएँ की जाती है, वे भी धर्म तो कहलाते हैं लेकिन उपचार से, गौणरूप से, जब कि सम्यग्दर्शन- सम्यक् चारित्र आत्म-स्वभावभूत प्रधान धर्म है। तो भगवान प्रधान क्षायिक धर्म की प्राप्ति वाले हुए हैं, यह इन चार कारणों से सिद्ध हैं :- (१) भगवान तीर्थंकर होने से श्रेष्ठ धर्मप्राप्ति वाले
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