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(ल०-मोक्षे कथं न भेदः?) न चात एव मुक्तावपि विशेषः, कृत्स्नकर्मक्षयकार्यत्वात्, तस्य चाविशिष्टत्वात् । दृष्टश्च दरिद्रेश्वरयोरप्यविशिष्टो मृत्युः, आयुःक्षयाविशेषात् । न चैतावता तयोः प्रागप्यविशेषः, तदन्यहेतुविशेषात् । निदर्शनमात्रमेतद् इति पुरुषोत्तमाः ॥६॥
(पं०)--एवं सत्त्वभेदसिद्धौ मुक्तावपि तद्भेदप्रसङ्ग इति पराशङ्कापरिहारायाह 'न च' =नैव, अत एवं' =इह सत्त्वभेदसिद्धेरेव हेतुतः, 'मुक्तावपि' =मोक्षेऽपि, न केवलमिह, 'विशेषो' =भेदः, तत्रापि सत्त्वमात्राभावात् । कुत इत्याह कुत्स्नकर्मक्षयकार्यत्वात्' =ज्ञानावरणादिनिखिलकर्मक्षयानन्तरभावित्वान्मुक्तेः, एवमपि किम् इत्याह 'तस्य च' =कृत्स्नकर्मक्षयस्य, 'अविशिष्टत्वात्' =सर्वमुक्तानामेकादृशत्वात् । तदेवार्थान्तरदर्शनेन भावयति 'दृष्टश्च' =उपलब्धश्च, 'दरिद्रेश्वरयोरपि' =पुरुषविशेषयोरपि, किं पुनरन्ययोरविशिष्टयोरिति 'अपि' शब्दार्थः, 'अविशिष्टः' =एकरूपो 'मृत्यु' =प्राणोपरमः । कुत इत्याह 'आयुःक्षयाविशेषात्' - 'आयुःक्षयस्य' =प्राणोपरमकारणस्य, 'अविशेषाद् =अभेदात् । कारणविशेषपूर्वकश्च कार्यविशेष इति । तर्हि तयोः प्रागप्यविशेषो भविष्यतीत्याह'नच' - 'एतावता' =मृत्योरविशेषेण, 'तयोः' =दरिद्रेश्वरयोः, 'प्रागपि' मृत्युकालाद् । 'अविशेषः' उक्तरूपः । कुत इत्याह 'तदन्यहेतुविशेषात्,' तस्माद् =आयुःक्षयविशेषाद्, अन्ये =ये विभवसत्त्वासत्त्वादयो हेतवस्तैः, विशेषात् =विशिष्टीकरणात् । 'निदर्शनमात्रमेतदिति' =क्षीणसर्वकर्मणां मुक्तानां क्षीणायुःकशिविशेषाम्यां दरिद्रेश्वराभ्यां न किञ्चित्साम्यं परमार्थतः इति दृष्टान्तमात्रमिदम् । इति पुरुषोत्तमत्वसिद्धि :।
पुरुषों में भी प्राणनाश स्वरूप मृत्यु एक-सी दिखाई पड़ती है। इस का कारण यह है कि प्राणनाश का कारणभूत आयुष्यक्षय है, और वह भिन्नता वाले पुरुषों में भी एक-सा होता है तब कार्य एक-सा क्यों न हो? कार्य में भेद तो कारण में भेद होने से ही हो सकता है। यहां कारण में भेद नहीं, अतः मृत्युस्वरूप कार्य समान होता है।
प्र०-तब तो मृत्यु के पहले भी समानता क्यों नहीं होती?
उ०-निर्धन और धनिक की मृत्यु समान है फिर भी मृत्युकाल के पूर्व भी समानता न होने का कारण यह है कि मृत्यु एक मात्र आयुःक्षय पर निर्भर है, जब की निर्धनता एवं धनिकता वैभव के होने न होने पर निर्भर है। इन हेतुओं में भिन्नता होने से दरिद्रता और धनिकता स्वरूप कार्यो में भेद पडता है।
यह तो एक दृष्टान्त मात्र हैं। बाकी यह ध्यान रहे जिन्होंने समस्त कर्मो का क्षय किया है ऐसे मुक्त जीवों का, जिन्होंने केवल अंशमात्र आयुःकर्म का क्षय किया है ऐसे मृत्युप्राप्त दरिद्र और धनिक संसारी जीवों के साथ, वास्तव रूप में कोई साम्य नहीं, कोई समानता नहीं है।
___ इस प्रकार सभी मुक्त जीवों में कर्मनाश एक-सा होने से मुक्ति एक-सी होती है। फिर भी तीर्थंकर जीवों में मुक्ति के पूर्व अन्य पुरुषों की अपेक्षा स्वाभाविक विशिष्ट योग्यता होने से फलतः तीर्थंकरपन स्वरूप भिन्न कार्य होता है। यह पुरुषोत्तमत्व की सिद्धि हुई।
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